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________________ १६४ प्रात्मतत्व-विचार तरह तैयार होकर अपने परिवार और वैभवसहित मेरु पर्वत पर आ पहुँचते है। ____ तब बारहवे स्वर्ग का इन्द्र अच्युतेन्द्र आभियोग्य देवो को अभिषेक की सामग्री तैयार करने की आजा देता है। श्री तीर्थंकर भगवान् के स्नात्राभिषेक मे कुल २५० अभिषेक होते है । इस अभिषेक के कला बहुत बड़े होते है । सामान्य मनुष्य उनकी कल्पना नहीं कर सकता । उनमे भीरसमुद्र का पानी भर कर लाया जाता है, कारण कि वह अत्यन्त मीठा और दूध के समान उज्ज्वल होता है। सौधर्मेन्द्र की शंका और प्रभु द्वारा प्रदर्शित अद्भुत शक्ति प्रथम अभिषेक बारहवें स्वर्ग के इन्द्र का होता है। उस समय विशाल स्नात्रकलगो से तीर्थकर भगवान् के गरीर पर धुंआधार पानी गिरता है । उसकी धारा इतनी प्रबल होती है कि उसमे हाथी भी खिचे चले जायें । सौधर्मेन्द्र को किसी तीर्थकर के समय का नहीं हुई थी; पर महावीर प्रभु के समय का हुई-"भगवान् इतनी बड़ी जलधारा को कैसे सहन कर सकेगे ?” इन्द्र भक्ति परायण है और जानता है कि ये साक्षात् परमात्मा है, फिर भी उसे शका हुई। उसे भगवान् ने अपने अवधिनान मे जान लिया और उसके निवारणार्य अपनी गक्ति बतलाने के लिए बाये पैर के अँगूठे से सिंहासन को दबाया कि वह सिंहासन, गिलापट और सारा मेरु पर्वत प्रकम्पित हो उठा। तमाम जम्बूद्वीप में कम्पन हुआ और उसके प्रभाव से लवण-समुद्र भी खलबला उठा । यह सब निमेष मात्र में हो गया । अभी तो चारहवे स्वर्ग के इन्द्र का अभिषेक होने को है। सौधर्मेन्द्र यह प्रकम्पन और खलबल देखकर विचारने लगा-“यह सब क्या हो रहा है ?” उसे किञ्चित क्रोध भी आया कि ऐसे शुभ प्रसग पर ऐसा उपद्रव करनेवाला कौन है ? उसने अवधिज्ञान से देखा तो फक पड़ गया । वह समझ गया-"यह तो स्वय
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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