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________________ १८२ आत्मतत्व-विचार गपगप, निन्दा-स्तुति में तो दिलचस्पी हो, परन्तु पीयूषपूर्ण हितकारी जिनवाणी में दिलचस्पी न हो तो समझ लो कि स्थिति गम्भीर है, मिथ्यात्व महारोग की जकड़ ढीली नहीं हुई है। मिथ्यात्व की भयकरता से आप परिचित होगे। मिथ्यात्व के कारण असत्य सत्य लगता है और सत्य असत्य ! फल यह होता है कि मिथ्यात्वी गलत रास्ता अख्तियार करता जाता है और अपने भवभ्रमण को अधिकाधिक बढाता जाता है । भवभ्रमण मे जन्म, जरा, मृत्यु के अतिरिक्त और भी बहुत से दुःख भोगने पडते है। ऐसे महा अनर्थकारी मिथ्यात्व को आप दिल से दूर न कर सकें तो आपकी चतुराई किस काम की ? आपकी होशियारी से क्या फायदा ? ___ हम तो आपको जिन-वचन के अनुसार पुकार पुकार कर कहते हैं-मिथ्यात्व को दूर करो | तब सम्यकत्व का मूयं आपके हृदय में प्रकाशमान होगा, जिसकी रोशनी में सब वस्तुएँ आपको अपने सच्चे स्वरूप में नजर आयेगी । जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, उसे सम्यकशान प्राप्त नहीं हुआ । शास्त्रकार भगवत कहते हैं नादंसणिस्त नाणं, नाणेण विणा न हुति चरणगुणा । अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निवाणं ॥ -जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, उसे सम्यक्ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जिसे सम्यकज्ञान प्राप्त नहीं होता, उसे सम्यक् चारित्र प्राप्त नहीं होता । जिसम सम्यक् चारित्र के गुण नहीं प्रकटे, वह कर्मबन्धन से मुक्ति नहीं पाता; और जो कर्मबन्धन से मुक्ति नहीं पाता, उसका निर्वाण नहीं होता। - इसका अर्थ यह समझना कि जो समकिती है, जिसे देव, गुरु और धर्म पर पक्की श्रहा है, वही सच्चा आत्मजान पा सकता है। शेष सत्र भटक जाते हैं । भगवद्गीता में कहा है
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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