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________________ १६० आत्मातत्व-विचार चाकी रही मनुष्यगति, उसमें चारित्र होने से केवलजान सभव है। मनुष्यगति को श्रेष्ठ मानने का यही कारण है। मनुष्यभव बिना चारित्र नहीं है, चारित्र विना केवलबान नहीं है, और केवलज्ञान विना मुक्ति नहीं है। जान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ऐसे जो पाँच प्रकार बतलाये हैं, वे सब मनुष्य को हो सकते है । मति और श्रुत ज्ञान तो उनमें सहज होता है, अवधि, मनःपर्यय और केवल लब्धिजन्य होते है । केवलज्ञान किसी का दिया हुआ नहीं आता । उसे स्वय ही प्राप्त करना होता है । जो पुर पार्थ करता है, अर्थात् सयम-जप-तप-ध्यान के मार्ग पर चलता और अप्रमत्त रहता है, उसे वह प्राप्त होता है | आज तक अनन्त केवली हो गये हैं। उन सब ने केवलज्ञान की प्राति इसी प्रकार की है। और, आगे जो अनन्त केवली होनेवाले है वे भी केवलज्ञान की प्राप्ति इसी प्रकार करेंगे। केवलजानी अपना कल्याण करते हैं और दुनिया का भी कल्याण करते है। आपको भी स्व-पर कल्याण करना हो, तो केवलजानी बनने का ध्येय रखना चाहिए । यद्यपि इस काल में यहाँ केवलजान नहीं होता, फिर भी उसकी प्राप्ति का दृढ सकल्प रखकर पुरुषार्थ करते रहे, तो गीघ्र ही किसी न किसी भव मे आप अवश्य केवलनानी हो जायेंगे । यह कभी न भूलिये कि, दृढ सकल्प और पुरुषार्थ जीवन को सफल बनाने के अमोघ उपाय है। अभी तो हम अपनी पीठ के पीछे क्या हो रहा है, यह भी नहीं देख सकते, क्योकि हमारी देखने की शक्ति मर्यादित है। परन्तु, केवलजानकंवलदर्शन हो जाने के बाद हम सर्वज्ञ और सबंदी हो जाते हैं। उल्लू रात में देख सकता है, दिन में नहीं देख सकता । कौआ दिन में देख सकता है, रात में नहीं देख सकता । हम ज्यादा अंधेरे में नहीं देख सकते । परन्तु, केवलजानी हो जाये तो निविड अधकार में भी देख सकते है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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