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________________ आत्मा का खजाना १५७ मान्यता बदल जाये तो महल भी कैदखाना सरीखा लगता है, मानपान मिथ्योपचार लगते हैं और अधिकार आकुलता पैदा करने लगता है । आत्मा इन सब चीजो मे आनन्द मानती ; इसका कारण उसकी विभावदगा है। विभावदशा अर्थात् — मोहग्रस्त स्थिति । यह स्थिति ज्यो-ज्यो दूर होती जाती है, त्यो त्यो वह स्वभाव में आता जाता है और निजानन्दरसलीन रहने लगता है । आत्मा के खजाने में आनन्द ठूस ठूसकर भरा है, इसीलिए वह आनन्दधन कहलाता है । वह आनन्द कभी कम नहीं होता, वह आनन्द कभी नष्ट नहीं होता । वह अक्षय और अविनाशी है। आनन्द मे सदा रमण करते रहते है और वही सब का लक्ष्य है। सिद्ध भगवान् ऐसे आत्मार्थी पुरपो आप मोह को छोडे दे तो इस आनन्द का अनुभव होने लगे । एक वार इस आनन्द का अनुभव हुआ कि फिर आपको पौद्गलिक आनन्द अच्छा नहीं लगेगा, पौद्गलिक आनन्द की इच्छा भी नहीं होगी । जिसे चक्रवर्ती का भोजन मिलता हो वह कोदों के भोजन की इच्छा क्यूँ करेगा ? आत्मा का खजाना अपूर्व है । इस जगत् की पार्थिव वस्तुऍ उसका मुकाबला नहीं कर सकतीं 1
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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