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________________ श्रात्मतत्व-विचार महावीर ने जन्म के दिन ही, मेरु-पर्वत पर चौसट इन्द्रो द्वारा होते हुए अभिषेक के समय, अपने पैर के अंगूठे को जरा ही टवाकर लाख योजन के मेरु पर्वत को कपायमान कर दिया था । वैसी शक्ति हम में भी है; पर वह कमों से दबी हुई है। मारे जगत् का ध्वस और रक्षण करने की गक्ति आत्मा में है। कर्मों के कारण हम कमजोर है। कमों का नामा होने के साथ ही आत्मा अनन्त शक्तिशाली बन जाती है। श्रद्धा पुरुषार्थ श्रद्धा से पैदा होता है और श्रद्धा से ही आगे बढ़ना है। आपके मन में यह श्रद्धा हो कि मैं अमुक गस्ते चलॅगा और अमुक फासला तय करूँगा तो अमुक स्थान पर पहुँचूँगा, तभी आप उस रास्ते को पकड़ते हैं और, चलना शुरू कर देते है। आपके मन में यह श्रद्धा हो कि मै अमुक प्रकार का भोजन करूँगा तो मेग भरीर स्वस्थ-बलिष्ट रहेगा, तभी आप वह भोजन करते है। और आपके मन में ऐसी श्रहा हो कि अमुक धंधा करूँगा तो धन कमा सकेंगा, तभी आप वह धधा करने के लिए तैयार होते है और उस धधे को करने लगते हैं। ___ आदमी रस्सी के सहारे चाहे जितनी ऊँची भीत पर चढ़ जाता है, लेकिन अगर रस्सी टूट जाये तो क्या होता है ? श्रद्धा के बारे में भी ऐसा ही समझना चाहिए, कारण कि वह भी एक प्रकार का अवलम्बन है । श्रद्धा टूटी, विश्वास डिगा, कि प्रवृत्ति खत्म | अगर आपके मन में यह टस जाये कि अमुक धये में बरकत नहीं होने वाली, तो क्या फिर आफ उस धधे को करेंगे? धर्माचरण में श्रद्वा को पहला स्थान दिया जाता है । श्रद्वारहित क्रिया पूरा फल नहीं देती। अगर आपको धर्म-प्रवर्तक के प्रति श्रद्धा हो, धर्म
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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