SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का खजाना १५१ वरमाला उनके गले में पड़ी। कवियो, लेखको, पत्रकारो और राजनीतिज्ञों के जीवन में भी इस सत्य की पुष्टि करने वाले अनेक उदाहरण मिल जायेंगे । कुछ लोग कहा करते है कि, लक्ष्मी तो भाग्य का खेल है; पर भाग्य भो पूर्व-भव के पुरुषार्थ के सिवाय क्या है ? पूर्व-भव में जो पुण्य कमाया उसी का नाम तो सद्भाग्य है, यानी आखिरकार सारी बात पुरुषार्थ पर आकर ठहर जाती है। पुरुषार्थ के पॉच दर्जे पुरुषार्थ के पॉच दर्जे माने गये है । 'उत्थान' यानी आल्स छोड उठ कर खडा हो जाना; 'कर्म' यानी कार्य में सलग्न हो जाना, 'चल' यानी कार्य में काया, वाणी और मन का शक्ति भर उपयोग करना, 'वीर्य' यानी कार्य की सफलता का उल्लास, आनन्द, मनाते रहना, और 'पराक्रम' यानी कठिनाइयों का सामना करते हुए धैर्यपूर्वक डटे रहना । भगवान् महावीर ने साधनाकाल मे कैसा पराक्रम दर्शाया था, वह आप जानते है । गोशालक कहता था - " जगत मे सत्र भाव नियत है, इसलिए उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम से कुछ नहीं होने वाला । मुख- दुःख नियत है और वे प्राणी को अवश्य भोगने पड़ते हैं ।" उसके इस नियतवाद की निस्सारता महावीर प्रभु ने किस तरह दर्शायी थी यह शास्त्र मे दिया हुआ है । नियतिवाद की निरर्थकता पर सद्दालपुत्र का दृष्टान्त पोलासपुर मे सहालपुत्र - नामक एक गृहस्थ रहता था । उसके पास पुष्कल धन था— एक कोटि हिरण्य निधान में था, एक कोटि व्याज में लगा हुआ था और एक कोटि अपने व्यवहार-धधे के उपयोग मे था । उसके पास दस हजार गायें थीं। उसकी मालिकी में पाँच सौ हाट पोलासपुर नगरी के बाहर थे। उनमें उसने बहुत से आदमी लगा
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy