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________________ રૂર आत्मतत्व-विचार इधर नटनी विचार करने लगी-"मैं ही सारे अनर्थ की मूल हूँ। मेरे रूपने ही इस इलापुत्र को पागल बनाया और राजा की नीयत बिगाड़ी। धिक्कार हो इस रूप को ! अब मुझे इस नट-विद्या से क्या ? मैं साधुता के मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करूँगी ।" ज्ञान का उदय अज्ञान का नाश करता है, मोह को पराजित करता है। इसलिए नटनी के हृदय में भी जबरदस्त परिवर्तन हुआ और शुद्ध भावना भाते हुए उसे भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया। फिर उन चारो केवलियो ने जगत् को धर्म का बोध देकर महा. उपकार किया। तात्पर्य यह है कि, जिन कर्मों को अज्ञानी करोड़ो वर्षों मे भी नहीं खपा सकता; उन्हें ज्ञानी मात्र श्वासोच्छ्वास में खपा देता है और केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष का अधिकारी बनता है। ज्ञान की आराधना हर वर्ष जानपश्चिमी आती है और ज्ञान की आराधना उत्कट भाव से करने की पुकार कर जाती है । पर, उस पुकार को कौन कितना सुनता है ? अगर उस पुकार को सुनते होते तो हमारी स्थिति ऐसी न होती। धर्मशास्त्र का ज्ञान नहीं है, आत्मा का ज्ञान नहीं है, कर्तव्य का ज्ञान नहीं है; भक्ष्याभक्ष्य और पेयापेय का विचार भी बहुत थोड़ों को होता है । अगर सच्चा ज्ञान बढ़े तो ऐसी हालत न रहे और उद्धार का मार्ग प्रशस्त हो जाये। जान पाँच प्रकार का है, यह बात कल बतला दी गयी है। आज उसके भेदो पर प्रकाश डालेगे; ताकि ज्ञान का स्वरूप आप पूरी तरह समझ जाये।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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