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________________ नवाँ व्याख्यान आत्मा का खजाना ( २ ) महानुभावो। व्याख्यान के प्रारम्भ में श्री उत्तराव्ययनसूत्र और उसका छत्तीसवें अध्ययन को याद कर ले; क्योकि वह आत्मा के प्रकृत विषय का उद्गमस्थान है । लोग नदी से ज्यादा नदी के उद्गम को अधिक पवित्र मानते हैं, इसीलिए नदी की परिक्रमा करते-करते उसके उद्गम तक पहुँचते है। हर वर्ष हजारो लोग हिमालय के गगोत्री-जमनोत्री की यात्रा को जाते हैं, क्योकि वे गगा और यमुना के उद्गम-स्थान माने जाते है। कल आत्मा का खजाना खोला और उसके जवाहरात परखने शुरू किये, तो जान-दर्शन आपकी नजरो मे चढे । उनमे भी जान ने आपका ध्यान विशेषरूप से खींचा। आज इस जान के विषय में ही आपसे कुछ विशेष कहना है। जान आत्मद्रव्य की विशेषता है। वह आपको किसी जड पदार्थ में नहीं मिलेगी। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय ये पॉच जड हैं। इनमें से किसी में ज्ञान नहीं होता। आत्मा जान के द्वारा पदार्य को जानता है और देखता है, उस पर श्रद्धा करता है तथा हेय-उपादेय का विवेक करके चारित्रमार्ग मे आगे बढने के लिए शक्तिमान होता है अर्थात् जान धार्मिक प्रगति का मूल है, आव्यात्मिक विकास का पाया है और सिद्धि-सोपान चढने का
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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