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________________ હર श्रात्मतत्व- विचार से ज्यादा १००० योजन से कुछ अधिक फैलने का प्रसंग आयेगा, पर चौदह राजलोक जितना तो कोई शरीर नहीं है; इसलिए उसे इतने विस्तार में फैलने का प्रसंग कैसे आयेगा ? और, अगर ऐसा प्रसंग न आये तो आत्मा की शक्ति चौदह राजलोक में व्याप्त हो जाने योग्य है, यह वैसे जाना जायेगा ?" इसका उत्तर यह है कि, शरीर की बड़ी से बड़ी अवगाहना १००० योजन से कुछ ज्यादा होती है, यह ठीक है, पर जब आत्मा को केवली - समुद्घात' करने का प्रसंग आता है, तब आत्मप्रदेश शरीर के बाहर निकलते ही वह चौदह राजलोक पर्यन्त व्याप्त हो जाती है। वह इस प्रकार है-अगर सर्वज्ञ केवली भगवन्त को नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कमां की स्थिति अपने आयुष्यकर्म की स्थिति से अधिक भोगनी बाकी हो, तो वह केवली भगवंत उक्त तीनो कर्मों की स्थिति को आयुष्यकर्म की स्थिति के बराबर बनाने के लिए अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर पहले समय में लोकान्त यानी लोक के निचले सिरे से ऊपर के सिरे तक चौदह राजलोक परिमाण ऊँचा और स्वदेह परिमाण मोटा डाकार रचते है, दूसरे समय में पूर्व से पश्चिम अथवा उत्तर से दक्षिण लम्बा लोकान्त तल कपाटाकार बनाते हैं; तीसरे समय में उत्तर से दक्षिण अथवा पूर्व से पश्चिम आत्मप्रदेशो को लम्बायमान कर दूसरा कपाटाकार यानी मथानी के आकार ( चार पखवाली मथनी के आकार ) का बनाते है; चौथे समय चार अन्तरालों को पूरते हैं; इस प्रकार उन केवली भगवन्त नाये हुए कर्मों को सचिकर भोग लेने को उदीरणा का होना ह- (१) वेदना, (२) कपाय, (३) मग्य, आहारक श्रीर (७) केवली । उनमें पहला ६ प्रकार का १ ममुद्घात म आत्मप्रयत्न और कर्म की उदीरणा मुख्य होती है । (उदय मं कहते हैं । ) वह सात प्रकार (४) वैक्रिय, (५) तैजस, ६) हमस्य जीवों को, प्रत्येक होता है और अतिम सर्वशों को, समय परिमाण होता है । म समुद्घात का विशेष स्वरूप उटक आदि में से जाना जा सकता है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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