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________________ तृतीय अध्याय बनारसीदास के रूपक बडे होमबल हैं। आपने अनेक रूपकों के माध्यम से जीव के मुक्त होने के उपाय का वर्णन किया है। आपका दृढ़ विश्वास है कि भव सागर से पार जाने का एक मात्र साधन मन इपी जहाज पर आरूढ़ होना है। जब तक जीव मन को नियन्त्रित नहीं करता, उसके जप, तप, ध्यान धारणा सभी व्यर्थ हैं। संसार-समृद्र विभाव रूपी जल से परिपूर्ण है,उस में विषयकषाय की तरंग उठा करती हैं, तृष्णा की बड़वाग्नि भी प्रज्वलित होती रहती है, भ्रम की भंवर उठा करती है, जिनसे मन कमी जहाज फसकर डूबता उतरता रहता है। चेतनरूपी मालिक समुद्र की यथार्थ स्थिति से परिचित है। जब वह जगकर डूबते हुए मन-जहाज में समता की शृङ्खला डाल देता है तो वह डूबने से बच जाता है। फिर वह शुभ ध्यान रूपी वादवान के सहारे मन-जहाज को शिवदीप की ओर मोड़ देता है। अन्ततः जहाज द्वीप पहुंचता है। मालिक द्वीप को गमन करता है। अन्त में कवि स्पष्ट कर देता है कि मालिक (जीव) और (परमात्मा) में अन्तर नहीं है । दोनों एक रूप हैं : मालिक उतर जहाज सों करे दीप को दौर । जहाँ न जल न जहाज गति नहि करनी कछ और ॥१३॥ मालिक की कालिम मिटी, मालिक दीप न दोय । यह भवसिन्धु चतुर्दशी, मुनि चतुर्दशी होय ||१४|| (बना० वि०, पृ० १५३) श्री कासलीवाल का यह कथन कि 'अध्यात्म की उत्कर्ष सीमा का नाम रहस्यवाद है। कवि की कुछ कविताएँ जिनमें अध्यात्म अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है, रहस्यवाद की कोटि में चली जाती हैं।.. कविवर बनारसीदास भी कबीर की कोटि के ही कवि थे,' अक्षरश: सत्य प्रतीत होता है। अध्यात्म की यह चरम सीमा कवि की अनेक रचनाओं में पाई जाती है। है। वह चिल्ला-चिल्लाकर कहता है 'अध्यातम बिन क्यों पाइये हो परम पुरुष को रूप' । आत्मज्ञान के होने पर ही सहज रूपी वसन्त आता है, सुरुचि रूपी सुगन्धि प्रकट होती है और मन रूपी मधुकर उसी में आनन्द लेने लगता है। सहजावस्था रूपी बसन्त के आगमन पर सुमति रूपी कोयल प्रसन्न हो उठती है, भ्रम के मेघ फट जाते हैं, माया-रजनी का अवसान हो जाता है, समरस का प्रकाश दिखाई पड़ता है, सूरति की अग्नि प्रज्वलित होती है, सम्यकत्व रूपी भानू का उदय होता है, जिससे हृदय रूपी कमल विकसित हो जाते हैं, निर्जरा रूपी नदी के जोर से कषाय रूपी हिमगिर गल जाते हैं और ध्यान की धार शिव सागर की ओर वह चलती है। अलख और अमूर्त प्रात्मा धमाल खेलने लगता है। होलिका में अग्नि लग जाने से अष्टकर्म जल जाते हैं और परम ज्योति प्रकट होती है। १. बनारसी विलास की भूमिका, पृ. ३८ । २. विपम विरप पूरे भयो हो, अायो सहज वसन्त । प्रगटी सुरुनि मुगन्धिता हो, मन मधुकर मयमन्त ।। अध्यातम बिन क्यों पाइये हो ।।२।।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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