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________________ तृतीय अध्याय ७३ किन्तु यह कथन ऐतिहानिक दृष्टि से सत्य नहीं प्रतीत होता । कारण, रामचरितमानस की रचना बनारसीदास के जन्म के पूर्व (मं० १६३३) में ही सम्पन्न हो चुकी थी। और गोस्वामी जी की मृत्यु के समय (सं० १६८०) बनारसी दास की आयु ३७ वर्ष की ही थी। इस प्रकार गोस्वामी जी वनारसी दास की अपेक्षा आयु में काफी बड़े थे। एक वृद्ध पुरुष का, विशेष रूप से गोस्वामी जी का, एक नवयुवक के पास अपनी रचना के काव्य-सौन्दर्य की जानकारी हेतु जाना कुछ अनुपयुक्त मा लगता है। इन प्रकार की घटना का कोई उल्लेख गोस्वामी जी के जीवन चरित्र में भी नहीं मिलता है। इसके अतिरिक्त बनारसीदाम ने 'अर्धकथानक' में अपने जीवन से सम्बद्ध सं० १६९८ तक की प्रत्येक घटना का उल्लेख किया है। यदि गोस्वामी जी से उनकी भेंट हुई होती तो इसका वर्णन अर्धकथानक में अवश्य होता। बनारसीदास और गोस्वामी तुलसीदास से मिलने की बचना में तो कछ औचित्य भी हो सकता है, क्योंकि दोनों महापूरूपों का आविर्भाव एक ही शताब्दी में हुआ था। किन्तु कुछ ऐसी भी किंवदन्तियाँ हैं जो बनारसीदास और गोरखनाथ में शास्त्रार्थ होने की चर्चा करती है। भला दसवीं शताब्दी के गोरखनाथ १७ वीं शताब्दी के बनारसीदास से शास्त्रार्थ करने कैसे आ सकते थे? इसी प्रकार कवीर के सम्बन्ध में भी प्रचलित है कि उनका चित्रगुप्त और गोरखनाथ से विवाद हया था। 'अमरसिह बोध" में कबीर और चित्रगुप्त के संवाद का वर्णन है, जिसमें चित्रगुप्त ने कबीर द्वारा दी हुई राजा अमरसिंह की पवित्रता देखकर अपनी हार स्वीकार की है। "कवीर गोरप गप्ट" के अनुसार गोरखनाथ और कवीर में तत्व सिद्धान्त पर प्रश्नोत्तर हए हैं और कबीर ने गोरख को उपदेश दिया है। इस प्रकार की वार्तामों में ऐतिहासिक सत्य खोजने की चेष्टा उचित नहीं। जीवन के अन्तिम दिवस और मृत्यु : कवि ने अर्धकथानक में अपने जीवन के ५५ वर्षी (मं० १६४३-१६९८) का ही विवरण दिया है। वे ५५ वर्षों को मनुष्य की पूर्ण आयु का अर्धाश ही मानते थे। इसीलिए ग्रन्थ का नाम अर्धकथानक रक्खा था। उनके शेष जीवन के विषय में कोई निश्चित विवरण नहीं मिलता। उनको अंतिम रचना २. देखिए-डा० माताप्रसाद गुप्त-तुलसीदाम, प्रयाग विश्वविद्यालय हिन्दी परिपद, प्र०सं० १६४२, पृ० २३० । श्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, पृ०६८ बरस पचावन ए कहे, बरस पचावन और। बाकी मानुप श्राऊ मैं, यह उतकिष्टी दौर ॥६६४|| बरस एक सौ दस अधिक, परमित मानुप ग्राउ। सोलह सौ अहानवे, समै बीच यह भाउ ६६५।। (अर्धकथानक, पृ० ६०-६१)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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