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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद छील की अन्य रचनाएँ राजस्थायी मिश्रित ब्रजभाषा में हैं, किन्तु 'आत्म प्रतित्रोध जयमाल की भाषा अपभ्रंश है । यद्यपि शब्दरूपों और क्रियापदों में काफी सरलता आ गई है और हम इसको पुरानी हिन्दी, भी कह सकते हैं । आरम्भ में कवि ने अरहंतों और सिद्धों की वन्दना की है ६८ विवि अरहंत गुरु विरगंथह, केवलणारण अरणंतगुणी । सिद्धहं पणवेप्प करम उलेप्पिणु, सोहं सासय परम मुखी ||छ || इसके पश्चात् 'आत्मा' के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । आत्मा और परमात्मा की चिन्तना ही इसका प्रतिपाद्य विषय है । कवि पश्चाताप करता है कि वह विषयों में आसक्त रहकर, पुत्र कलत्र के मोह में फँसकर भव-वन में विचरण करता रहा और सत्य को न जान सका, आत्मज्ञान से वंचित ही रहा । भव बन हिंडत विसयासत्तहं, हा मैं किंपि ण जाणियउं । लोहावल सत्तइं पुत्त कलत्तई, मैं वंचित अप्पारणउ ॥६॥ पर पदार्थों के सान्निध्य से आत्म स्वरूप ही विस्मृत हो गया । वस्तुत: आत्मा समस्त पौद्गलिक पदार्थों से भिन्न है । कैसा है ? इस पर कवि कहता है कि 'मैं दर्शन ज्ञान चरित्र हूं, देह प्रामाण्य हूं, मैं परमानन्द में विलास करनेवाला, ज्ञानसरोवर का परमहंस हूं, मैं ही शिव और बुद्ध हूँ, मैं ही चौबीस तीर्थङ्कर, बारह चक्रेश्वर नरेन्द्र, नव प्रतिहार, नव वासुदेव और नवहलधर हूँ : -- हुडं दुसंग गाण चरित सुद्ध । हरं देह पमावि गुण समिद्धु ॥ हउँ परमाणदु अखण्डु देसु । हउं पारण सरोवर परमहंसु ॥ हरयणत्तय चविह जिणंदु | ह बारह चक्केसर गरिंदु || हउ णव पडिहर व वासुदेव । ह व हलधर पुगु कामदेव || इस प्रकार इस छोटी रचना में आत्मा का संबोधन है। अंत में पुन: तीर्थङ्करों और अरहंतों की स्तुति की गई है ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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