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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद सकती। सिर मुड़ाने या केश बढ़ाने से कोई अन्तर नहीं आता। जप, तप, ब्रत आदि से उसकी प्राप्ति की कामना अविवेक है।' रेचक, पूरक, कुम्भक, इडा पिंगला तथा नाद विदु आदि के चक्कर में न पढ़ कर, अपने अन्तर में स्थित 'मन्त निरंजन' को ही खोजना चाहिए। इस प्रकार आपने भी सहज भाव से रमामयद प्राप्ति में विश्वास व्यक्त किया है और इसी को सर्वोत्तम साधना स्वीकार किया है। () छोहल छोहल मोलहवीं शताब्दा के कवि थे। हिन्दी के इतिहास लेखकों ने इनका नाम अवश्य लिया है, किन्तु सभी रचनाओं के उपलब्ध न होने से, इनके माथ न्याय नहीं हो सका। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छीहल' को भक्तिकाल के फटकल कवियों में गिनाया है। आपने लिखा है कि "ये राजपूताने की अोर के थे। मं० १५७५ में इन्होंने 'पंचसहेली' नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्थानी मिली भाषा में बनाई, जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। इसमें पाँच सखियों की विरह वेदना का वर्णन है। इनकी लिखी एक बावनी भी है, जिसमें ५२ दोहे हैं। डा० रामकुमार वर्मा ने शुक्ल जी के कथन को ही दुहराया है। अपने इतिहास में 'कृष्ण काव्य' के कवियों के साथ छीहल का परिचय देते हुए आपने लिखा है कि 'इनका कविता काल सम्वत् १५७५ माना जाता है। इनकी 'पंच सहेली' नामक रचना प्रसिद्ध है। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव यथेप्ट है, क्योंकि ये स्वयं राजपूताने के निवासी थे। रचना में वियोग शृङ्गार का वर्णन ही प्रधान है"। इधर राजस्थान के जैन शास्त्र भांडारों के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची तैयार होने में हिन्दी के अनेक अज्ञात कवि प्रकाश में आए हैं और अनेक नई रचनाओं का पता चला है, जो भाषा और साहित्य दोनों दष्टियों से काफी महत्व की हैं। इस सूची में छीहल की एक अन्य रचना यात्म प्रतिबोध जयमाल' का भी उल्लेख किया गया है। डा० शिव प्रसाद सिंह ने अपने शोध प्रबन्ध 'भूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' में छीहल पर विस्तार से विचार १. जर तव वेयहि धारणहिं, कारणु लहण न जाइ। .... ... .... .... .... " " ॥६१।। रेचय परय कुम्भयहि, इड़ पिंगल हि म जोइ ।। नाद विन्द कलवज्जियउ, सन्तु निरंजणु जोइ ।। २७८ ।। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० १८२ 1 ४. डा० रामकुमार वर्मा-हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ०५८८। ५. राजस्थान के जैन शास्त्र भांडारों की ग्रन्थ सूची (भाग २)।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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