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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद 'जोगिचन्द' के स्थान पर जोगचन्द' और द्वितीय चरण में 'इक्कमणेण' के स्थान पर कत्रु मिण का प्रयोग हुआ है। ___ कवि ने अपने को 'जोइन्दु' या जोगचन्द (जोगिचन्द) ही कहा है, यह • और योगसार' में प्रयुक्त नामों से स्पष्ट है। 'इन्दु' और 'चन्द्र' हैं। व्यक्तिवाचो संज्ञा के पर्यायवाची प्रयोग भारतीय काव्य में पाये जाने हैं। श्री ए० एन० उपाध्ये ने भागेन्दु ( भागचन्द्र ) शुभेन्दु (शुभनन्द्र) आदि उद्धरण देकर इस तथ्य की पुष्टि की है।' गोस्वामी तुलसी दास के रामचरितमानस' में व्यक्तिवाची संज्ञाओं के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग बहुत हला है। 'मुग्रीव' का 'सुकंठ', 'हिरण्यकशिपु' का 'कनककशिपु', का हाटवालोचन'. 'मे वनाद' का 'वारिदनाद', और 'दशानन' का 'द मून्य प्रादि प्रयोग प्राय: देखने को मिल जाते हैं। श्री ब्रह्मदेव ने अपनी टोका में जोइन्दु का मंस्कृत रूपान्तर 'योगीन्दु' कर दिया। इसी आधार पर परवर्ती टीकाकारों और लिपिकारों ने योगीन्द्र' शब्द को मान्यता दी। किन्तु यह प्रयोग गलत है। कवि का वास्तविक नाम 'जोइन्दु', 'योगीन्दु' या 'जोगिन्द हो है। तीनों एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। काल-निर्णय : 'जोइन्दु' के नामकरण के समान ही उनके कालनिर्णय पर भी मतभेद है और उनको ईसा की छठी शताब्दी से लेकर १२वीं शताब्दी तक घसीटा जाता है। श्री गांधी 'अपभ्रंश काव्यत्रयी' की भूमिका (पृ० १०२-१०३) में 'जोइन्दु' को प्राकृत वैयाकरण चंड से भी पुराना सिद्ध करते हैं। इस प्रकार वे इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी मानते जान पड़ते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अापको नत्री शताब्दी का कवि मानते हैं। श्री मधुसूदन मोदी ने (अपभ्रंश पाठावली. टिप्पणी, पृ. ७७, ७९) आपको १० वीं शती में वर्तमान होना मिद्ध किया है। श्री उदयसिंह भटनागर ने लिखा है कि प्रसिद्ध जैन माधु जोइन्दु (योगीन्दु) जो एक महान विद्वान् वैयाकरण और कवि था, सम्भवतः चित्तोड़ का ही निवासी था। इसका समय विक्रम की १० वीं शती था। हिन्दी माहित्य के वृहत् इतिहास में आपको ११ वीं शती से पुराना' माना गया है। श्री कामताप्रसाद जैन आपको वारहवीं शताब्दी का 'पुरानी १. देखिए, परमात्मप्रकाश की भूमिका, पृ० ५७ । २. प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-मध्यकालीन धर्म साधना, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, प्र० संस्करण, १६५२, पृ० ४४ । ३. देखिए, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज ( तृतीय भाग ) की प्रस्तावना, पृ० ३। ४. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास (भाग १), पृ० ३४६ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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