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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद अथिरं परियणसयणं पुचकलत्तं सुमत्तलावण्णं । निहगोहण सव्वं णवघणविदेण सारित्थं ॥६॥ पंथे पहियजमा जह संजोओ हवेइ खणमित्त । वंजमा च तहा संजोओ अद्धुओ होई ॥८॥ मनुक्षा में सांसारिक भयों और जीव की असुरक्षा का वर्णन है। मंजमाव में जीव के वार-बार जन्म लेने और मत्यू को प्राप्त होने तथा विषय मवों की अणिकता का विवेचन है। एकत्वानप्रेक्षा में जीव की एकता का प्रतिपादन है। अगुचित्वानुप्रेक्षा में शरीर की मलिनता और नश्वरता का चित्रण है। इसी प्रकार बाद में सन्त सुन्दरदास ने देह की मलिनता का का वर्णन किया है । इसके पश्चात् कवि ने आत्मा और शरीर में अन्तर, मात्मा की अवस्थाओं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा. परमात्मा और षड द्रव्यों आदि की विवेचना की है। प्रायः सभी जैन कवियों ने प्रात्मा की तीन अवस्थाओं को स्वीकार किया है और तीसरी अवस्था (परमात्मा) को प्राप्त होना ही साधकों और मुनियों का लक्ष्य बताया है। लेकिन स्वामी कातिकेय के विवेचन में अन्य मुनियों के वर्णन से थोड़ा अन्तर मिलता है। उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का लक्षण तो वही बताया है, जो अन्य कवियों-कुन्दकुन्दचार्य या योगीन्द मुनि को स्वीकार्य है। किन्तु उन्होंने अन्तरात्मा और परमात्मा के भी क्रमशः तीन और दो उपभेदों की कल्पना की है। अन्तरात्मा के सम्बन्ध में उनका कहना है कि जो जिणवाणी में प्रवीण है, जो शरीर और आत्मा के भेद को जानते हैं और जिन्होंने पाठ मद जीत लिए है, वे उत्कृप्ट, मध्यम और जघन्य नामक तीन प्रकार के अन्तरात्मा कहे जाते हैं। परमात्मा भी दो प्रकार के होते हैं-अरहन्त मौर सिद्ध। जो शरीर धारण किये हुए भी केवल ज्ञान से सकल पदार्थों को जानते हैं, वे परहन्त हैं और ज्ञान ही जिनका शरीर है अर्थात पंचभौतिक शरीर को जो त्याग चुके हैं और जो सर्वोत्तम सुख को (निर्वाण को) प्राप्त हो चुके हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । अन्त में स्वामी कार्तिकेय ने नास्तित्व का खण्डन किया है और पात्मा तथा परमात्मा में निष्ठा व्यक्त की है। १. जी जिन वयणे कुमली भेदं जागांति जीव देहाणं । ' णि विजयदुइटमया अन्तरअप्पा य ते तिबिहा ॥१६४|| . परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥१२॥ ३. समीरा अग्हंना केवलणाणेण नुणियसबलत्था । णाणमरीय सिद्धा सत्रुत्तम मुक्खसंपत्ता ॥१६॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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