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________________ द्वितीय खण्ड ततीय अध्याय जैन रहस्यवादी कवि और काव्य जैन कवियों की उपेक्षा के कारण जैन साहित्य मूलतः धार्मिक साहित्य है। जैन कवियों ने छिछले शृगार अथवा लौकिक आख्यानों की अपेक्षा धार्मिक और आध्यात्मिक साहित्य की रचना में ही अधिक रुचि ली है, यद्यपि धर्मेतर साहित्य की भी उनके द्वारा कम मात्रा में रचना नहीं हुई है। अपभ्रंश और हिन्दी में इनके द्वारा अनेक चरित काव्य और रासो ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जो अब धीरे-धीरे प्रकाश में आ रहे हैं। किन्तु इन कवियों की अधिक धर्मनिष्ठा और इनमें से कुछ कवियों की आवश्यकता से अधिक साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के कारण इनके साथ न्याय नहीं हो सका। हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनको उचित स्थान तक न मिल सका। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे निकर की दृष्टि में ये न जंच सके और इनको मात्र धार्मिक रचनाकार कह कर इतिहास से निकाल दिया गया। किन्तु स्थिति सदैव समान नहीं रहती है। सत्य और गुण को अधिक दिनों तक छिपाया नहीं जा सकता। जैन धार्मिक रचनाओं का भी नये सिरे से मध्ययन हुआ और उनके महत्व पर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ। धीरे-धीरे यह स्पष्ट हुआ कि उनकी धार्मिक रचनाएँ भी उच्चकोटि के साहित्य में प्रमुख स्थान रखती हैं और हिन्दी साहित्य से उनको अलग कर देने का तात्पर्य होगा, उसके एक महत्वपूर्ण प्रशस हाथ धोना। सम्भवतः प्राचाय हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सर्वप्रथम स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि "स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदंत और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते। धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्यिक कोटि से अलग नहीं
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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