SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद २. अतः वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान से रहित जीवों को तीर्थ भ्रमण से मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता: तित्थहं तित्थु भमंताहं मूढ़ह मोक्खु ण होइ । णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवर होइ ण सोइ ॥५॥ (परमात्म-प्रकाश, दि० खंड) जब परमात्मा का प्रावास शरीर में ही है अर्थात जो ब्रह्मांड में व्याप्त है. वही पिण्ड में स्थित है, तो केवल चित्त शुद्धि से उसका पावन साक्षात्कार किया जा सकता है। जब मन नाना प्रकार की वासनाओं से विरत हो जाता है, शरीर और तत्सम्बन्धित पदार्थों की क्षणभंगुरता को जानकर उससे विमुख हो जाता है पौर एकमात्र प्रात्म तत्व की ही आराधना करता है तो एक ऐसी अवस्था आती है, जब उसके ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं, वह परमानंद का अनुभव करता हमा, उसी में लीन हो जाता है अथवा वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। इसे ही 'मामरस्य अवस्था या समरसी भाव' कहा गया है। इसी रस का अनुभव करने वाला नया अन्य किसी रस की स्पृहा नहीं करता : समरसकरणं वदाभ्यां परमपदाखिल पिण्ड्योरिदानीम् । यदनुभव बलेन योग निष्ठा इतरपदेषु गतस्पृहा भवन्ति । इस समरमीभाव' में लवणवत् घुलमिल जाने पर, अपनी सत्ता की परममता में एकाकार कर देने पर किसी अन्य साधना की आवश्यकता ही नहीं रहती। जीव इसी पिण्ड में अवस्थित ब्रह्म से अपना अभेद सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। योगीन्दु मूनि ने कहा है कि समरसी भाव को प्राप्त हा साधक संकल्पविकार-रहित होकर अात्मस्वरूप में ठहरता है, उसे 'संवर निर्जरा स्वरूप' भी कहा जाता है : अच्छड जित्तिउ कालु मुणि अप्पु सरुवि णिलीण। संवर णिज्जर जाणि तुहु सयल वि अप्प-विहीणु ॥३८॥ (परमात्म प्रकाश) इमोलिए आपने चित्त शुद्धि पर अत्यधिक जोर दिया। आपने बार-बार कहा कि बन्दन और प्रतिक्रमण को छोड़कर, जीव को शुद्ध चित्त सम्पन्न होना अनिवार्य है। मन शुद्धि के बिना संयम सम्भव नहीं। चित्त शुद्धि के द्वारा ही संयम, शील, तप, ज्ञान, दर्शन, कर्मक्षय सम्भव है। विशुद्ध भाव ही धर्म है। शुद्ध भाव ही मुक्ति मार्ग है। चित्त शुद्धि के बिना किसी भी साधन से मुक्ति सम्भव नहीं : वदंणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहिं एहु ण जुत्त । एक्कु जि मेल्लिविणाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्त ।।६।। . आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-मध्यकालीन धर्म साधना पृ० ४५ से उद्धृत।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy