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________________ २८६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद परमात्मा घट भीतर सो आप हइ, तुमहि नहीं कछु यादि। शरीर में वस्तु मुट्ठी मइ भूलिकह, इत उत देखत बादि ॥५३।। पाहन माहि सुवर्ण ज्यउं, दारु विषइ अंत भोजु । तिम तुम व्यापक घट विषइ, देखहु किन करि खोजु ॥५४॥ पुष्पन विषइ सुवास जिम, तिलन विषइ जिम तेल । तिम तुम व्यापक घट विषइ, निज जानइ दुहु खेल ॥५५॥ दरिशन ज्ञान चरित्रमइ, वस्तु बसइ घट माहि। मूरिख मरम न जानही, बाहिर सोधन जाहि ॥५६॥ दर्शन ज्ञान दरिशन वस्तु जु देखियइ, अरु जानियइ सु ज्ञान । चरित्र चरण सुथिर ता तिह विषइ, तिहूं मिलइ निरवान ॥५८।। रतन त्रय समुदाय विन, साध्य सिद्धि कहुं नांहि । अंध पंगु अरु आलसी, जुरे जरहि दउ मांहि ॥५९॥ दरिशन ज्ञान चरित्र ए, तीन्यउ साधक रूप । ज्ञाइक मात्र जु वस्तु हइ, ताही कइ जु सरूप ॥६२॥ निश्चय और विजन पर्यय नित्य ज्यउ, निहचइ नइ सम वाइ। म्यवहार नय व्यवहार नय सु वस्तु हइ, छणक अर्थ पर्याइ ॥७६॥ निहचइ नइ परभाव कइं, करता सु भुगता नाहि । व्यवहारइ घटकार ज्यउं, सु करइ भुगतइ ताहि ॥५०॥ सुद्ध निरंजन ज्ञानमइ, निहचइ नइ जो कोइ । प्रकृति मिलइ व्यवहार कइ, मगन रूपह सोई ॥१॥ निहचै मुक्त सुभाव ते, बंध कहयंउ व्यवहार । एवमादि नय जुगति कइ, जानहुं वस्तु विचार ।।८३॥ जप-तप सिद्धि- चेतन चित्त परिचइ विना, जप-तप सबह निरत्थु । दायक नहीं कण बिन तुस ज्यउं फटकतइ, आवइ कछू न हत्थु ॥८६॥ चेतन स्यउं परिचइ नहीं, कहा भए व्रत धारि। " सालि बिहूना खेत की, वृथा बनावत वारि ॥७॥ ग्रंथ पढ़े अरु तप तपै, सहै परीसह साहु । केवल तत्व पिछान बिनु, कहूं नहीं निरवाहु ।।९४॥ गुरु-महत्व गुरु बिन भेद न पाइय, को पर को निज वस्त । गुरु बिन भव सागर विषइ, परत गहइ को हस्त ॥९७॥ गुरु माता अरु गुरु पिता, गुरु बंधव गुरु मित्त। हित उपदेसइ कमल ज्यउ, बिगसावइ जन चित्त ॥१९॥ गुरुनि लखायउ मइ लख्यउ, वस्तु रम्य पर दूरि । मनसि सुरम कहना लहइ, सूत्र रह्यउ भरपूरि ॥१०॥ रूपचन्द सदगुरन की, जन बलिहारी जाइ। अपुन जे सिवपुर गए, भव्यन पंथ लगाइ ॥१०॥ "इति रूपचन्द कृति दोहा परमार्थ संपूर्ण ।" ....
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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