SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट २७५ जिम कठ्इ उहणहं मुगहि, वइमानरु फुडु होइ । तिम कम्मह उइणहं भविय, अप्पा अण्णु ण होइ॥१४॥ सत्त घाडमउ पुग्गल वि, किमि बुलू असुइ निवासु । तहिं णाणिउं किमई करइ, जो छडइ तव पासु ॥१५॥ असुइ सरीरु मुहि जइ, अप्पा णिम्मलु जाणि । तो अमुइ वि पुग्गल चयदि एम भणति हु णाणि ॥१६॥ जो स महान चरवि मुणि, परभावह परणेइ । सो आमउ जाणेहि तुह, जिणवर एम भणेइ ॥१७॥ आसउ संसारह मुहि, कारण अण्ण ण कोइ। इम जाणेविणु जीव तुहं, अन्ना अप्पउ जोइ ॥१८॥ जो परियाणई अप्प परु, जो परभाउ चएइ। सो संवर जाणेवि तुहं. जिणवर एम भणेइ ।।१९।। जय जिय संवा तुहं करहि, भो! सिव मुक्खु लहँहि । अण्णु वि सयलु त्रिनु, जिणवर एम भणेहि ॥२०॥ सहजाणंद परिधि, जो परभाव ण विति। ते सूह असुह वि णिज्जरहि, जिणवरु एम भणंति ॥२१॥ स सरीरु वि तइ लोउ मुणि, अण्णु ण वीयउ कोइ। जहिं आधार परिठियउ, सो तुहं अप्पा जोइ ॥२२॥ सो दुल्लह लाहु वि मुणहिं, जो परमप्पय लाहु । अण्णु ण दुल्लह किपि तुहु, णाणि बोलहि साह ।।२३।। पुणु पुणु अप्पा झाइवइ, मण-वय-काय-ति-सुद्धि । राग रोस बे परिहरिवि, जइ चाहहि सिव सिद्धि ।।२४।। राग रोस जो परिहरिवि, अप्पा अप्पहि जोइ। जिणसामिउ एमउ भणई, सहजि उपज्जइ सोइ ॥२५॥ जो जोवइ सो जोइयइ, अण्णु ण जोयहिं कोय । इमि जाणेविण सम रहं, सई यह पइयड होय ॥२६॥ को जोवइ को जोइयइ, अण्णु ण दीसइ कोइ। सो अखण्ड जिणु उत्तियउ, एम भणं तिहु जोइ ॥२७॥ जो सुणणु वि सो सुण्णु मुणि, अप्पा सुण्णु ण होइ। सल्लु सहावें परिहवई, एम भणंति हु जोइ ॥२८॥ परमाणंद परिट्टियहि, जो उपज्जइ कोइ । सो अप्पा जाणेवि तुहुं, एम भणन्ति हु जोइ ।।२९।। सुधु सहावें परिणवइ, परभावहं जिण उत्तु । अप्प सहावें सुण णवि, इम सुइकेवलि उत्तु ॥३०॥ अप्प सरूवहं लइ रहहिं, छंडय सयल उपाधि । भणइं जाइ जोइहि भणउ, जीवह एह समाधि ॥३१॥ सो अप्पा मुणि जीव तुहुं, केवल णाणु सहावु । भणइ जोई जोइंहि जिउ, जइ चाहहि सिवलाहु ॥३२॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy