SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद है कि वह ' अवधूत मत' से प्रभावित अवश्य थे । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि "यद्यपि कबीरदास अवधूत मत को मानते नहीं तथापि अवधूत के प्रति उनकी अवज्ञा नहीं है, उसे वे काफी सम्मान के साथ ही पुकारते हैं । वे उसे कभी कुछ उपदेश दे देते हैं, कभी कुछ बूझने को ललकारते हैं, कभी उसकी साधना पद्धति की व्यर्थता दिखा देते हैं और कभी-कभी तो कुछ ऐसी शर्त रख देते हैं, जिनको अगर अवधूत समझ सके तो वह कबीरदास का गुरु तक बन सकता है। 'यह एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि कबीरदास जब 'अवधू' को संबोधित करते हैं तो उसी की भाषा का प्रयोग करते हैं अर्थात् उलटवासियों और नादविन्दु, गगन, मण्डल, सींगी, मुद्रा आदि में ही उसे समझाने की चेष्टा करते हैं । वह कभी कहते हैं कि 'भाई अवधू ! वही योगी मेरा गुरु हो सकता है जो इस बात का फैसला कर दे 'एक वृक्ष है, जो बिना जड़ के स्थित है, उसमें बिना पुष्प के ही फल लगे हैं, न उसके शाखा है और न पत्र और फिर भी आठों दिशाओं को उसने आच्छन्न कर रक्खा है । इस विचित्र वृक्ष के ऊपर एक पक्षी है जो बिना पैर के ही नृत्य कर रहा है, बिना हाथों के ही ताल दे रहा है, बिना जीभ के ही गाना गा रहा है। गाने वाले की कोई रूप रेखा नहीं है, पर सतगुरु अगर चाहें तो उसे दिखा सकते हैं, वह कभी अवधू की वेश भूषा और क्रिया कलाप की विवेचना करने लगते हैं, तो कभी ' अवधू' के समक्ष 'कुदरत की गति' का वर्णन करते हैं; कभी अवधू से 'भजन' भेद' की बात करते हैं, तो कभी 'मतवा' मन' की; कभी 'सहज समाधि' की बात करते हैं, तो कभी 'माया' की व्यापकता की । कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर ने अपने सिद्धान्तों का निरूपण प्राय: ' अवधू' सम्बोधन द्वारा ही किया है। जिस प्रकार नाथ सिद्ध हर बात 'अवधू को समझाना चाहते हैं, उसी प्रकार कबीर भी । जैन कवियों में 'अवधू' शब्द का प्रयोग वैसे तो मुनि रामसिंह (दोहापाहुड़, दो० नं १४४) आदि कवियों में भी मिल जाता है, किन्तु इस मत से अधिक निकट का परिचय सन्त आनंदघन को ही था । उन्होंने प्रायः 'अवधू' सम्बोधन द्वारा ही अपनी बात कही है। जिस प्रकार कबीर ने 'अवधू', 'पांडे', 'मुल्ला' और 'साधो' आदि सम्बोधनों का साभिप्राय प्रयोग किया है, वैसे ही संत आनंदघन ने भी 'साधो' या 'अवधू' को विशिष्ट प्रयोजन के लिए ही सम्बोधित किया है । आपने 'अवधू' सम्बोधन द्वारा ब्रह्म का निरूपण किया है, १. कबीर, पृ० २३ । २. कबीर ग्रंथावली, पद १६५ । ३. कबीर ग्रंथावली, पद ६० । कबीर (कबीर वाणी ) पद १२२, पृ० २६७ । ५. कबीर (कबीर वाणी ) पद १०६ । ६. कबीर ( कबीर वाणी ) पद १०८ । ७. कबीर ( कबीर वाणी ) पद ४० । ८. 33 33 पद ५ । ४. 19
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy