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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद अब मेरे पति गति देव निरंजन। भटकूँ कहाँ, कहाँ सिर पटकूँ, कहाँ करूं जन रंजन । खंजन दृगन लगावू, चाहूँ न चितवन अंजन । संजन-घट-अंतर परमातम, सकल-दुरित-भय-भंजन । एह काम गति एह काम घट, एही सुधारस मंजन । आनंदघन प्रभु घट बन केहरि, काम मतंग गज गंजन ॥६०॥ (आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ३८४ ) अवधू । 'अवधू' शब्द का प्रयोग कई साधना मार्गों के आचार्यों ने किया है। सहजयानी और नाथ सिद्धों का तो यह शब्द ही है। हिन्दी के संत कवियों में कबीर और जैन मुनियों में संत आनंदघन ने इस शब्द का प्रयोग सर्वाधिक किया है। 'नाथ सम्प्रदाय' के लिए जो अन्य शब्द प्रचलित हैं, उनमें 'अवधूत मत' और 'अवधूत सम्प्रदाय' भी हैं। 'गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह' में कहा गया है कि हमारा मत 'प्रवधत मत ही है-अस्माकं मत त्ववधूतमेव। कबीरदास ने भी जहाँ-जहाँ 'अवधू' को सम्बोधित किया है, वहाँ उनका तात्पर्य नाथयोगियों से ही है। 'अवध' के सम्बन्ध में कहा गया है कि वह मूद्रा, निरति, सरति और सींगी धारण करता है, नाद से धारा को खंडित नहीं करता, गगन मंडल में बसता है और दुनिया की ओर देखता भी नहीं। निर्वाण तन्त्र (चतुर्दश पटल) में कहा गया है कि 'अवधूत' वह है जो पंच तत्व का सेवन करता हुआ वीराचारी होकर रहता है, सन्यास की सभी विधियों का यथोक्त पालन करता है, दंडियों की भांति अमावस्या के दिन मुंडन न कराके लम्बे केस और जटा आदि धारण करता है, अस्थिमाला और रुद्राक्ष को धारण करता है, दिगम्बर होकर या कौपीन मात्र धारण करके रहता है और शरीर में रक्त चन्दन और भस्म का लेप करता है। १. श्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, पृ० १ से उद्धृत । श्रुणु देवि प्रवक्ष्यामि अवधूतो यथा भवेत् । वीरस्य मूर्ति जानीयात् सदा तत्वपरायणः॥ यद्रूपं कथितं सर्व सन्यासधारणं परम् । तद्रूपं सर्वकर्माणि प्रकुर्यात् बीरवल्लभम् ॥ दंडिनो मुंडन चामावस्यायामाचरद्यथा । तथा नैव प्रकुर्यात्तु वीरस्य मुण्डन प्रिये ।। असंस्कृतं केशजालं मुक्तालंबि कचोच्चयम् । अस्थिमाला विभूषा वा रुद्राक्षानपि धारयेत् ॥ दिगम्बरो वा वीरेन्द्रश्चाथवा कौपिनी भवेत् । रक्त चन्दनसिक्तांगं कुर्याद् भस्मांग भूषणम् ।। (कबीर, पृ० २६ से उद्धृत)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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