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________________ एकादश अध्याय स्थान में तप करने चले गये। उन्हीं के नाक से श्वास के साथ चारो वेद निकले। लेकिन यह निरंजन सन्तों और साधकों के मार्ग में बाधा डालता है और उसने पूरे विश्व को भ्रम या माया से बांध रखा है। वेद उसके रहस्य को बताने में असमर्थ हैं। इसी से संघर्ष करने के लिए कबीर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग प्रादि चारो युगों में पैदा हुए। इस प्रकार कबीर के अनुयाइयों ने कबीर को निरंजन में श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए कथाओं को गढ़ा और निरंजन को दर्शनान' व महाठग तक बताया। यहाँ दृष्टव्य यह है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी निरजन का पुत्र और उसके रहस्य को जानने में असमर्थ बताया गया है। लेकिन यह कथाएँ केवल इस तथ्य का आभास देती हैं कि मध्यकाल में धर्म साधना के क्षेत्र में अनेक सम्प्रदाय और उ-सम्प्रदाय जन्म ले रहे थे तथा प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुयायी अपने आराध्य को सर्वोच्च एवं सर्वधेष्ठ तथा अन्य देवताओं या अन्य साधना के इष्टदेवों को हीन सिद्ध करने की अनेक प्रकार से चेष्टा कर रहे थे। एतदर्थ कथानों को गढ़ लेना एक सरल कार्य था। यद्यपि परवर्ती अनेक सन्तों ने निरंजन को परमपुरुष से भिन्न और धोखेबाज कहा है, शिव नारायण के मत से निरंजन ने हो सभी जीवों को मोह में बांध रक्खा है और तुलसी साहब के अनुसार निरंजन सारे जगत का आध्यात्मिक महत्व लूट लेता है,' यही नहीं कबीर के मुख से भी यह कहलवाने की चेष्टा की गई है कि निरंजन ठग एवं पाषण्डी था, लेकिन स्वयं कबीर ने 'निरंजन' शब्द का प्रयोग 'ब्रह्म' के लिए ही किया है। एक पद में उन्होंने 'निरंजन' का स्मरण इस प्रकार किया है : गोव्यंदे तूं निरंजन तूं निरंजन राया। तेरे रूप नाहीं रेख नाही, मुद्रा नहीं माया ।।टेक।। समद नाहीं सिषर नाही, धरती नाहीं गगना। रवि ससि दोउ एकै नाही. बहत नाहीं पवना॥ ॥२१॥ (कबीर ग्रंथावली, पृ०१६२) एक अन्य पद में उन्होंने अपने आराध्य को 'निरंजन' संज्ञा दी है और कहा है कि हिन्दू तुरुक दोनों की पद्धतियों को छोड़कर उसी अल्लाह निरंजन से प्रम करना चाहिए। सन्त सुन्दरदास ने भो निरंजन का प्रयोण निर्गुण और निराकार ब्रह्म के लिए किया है : अंजन यह माया करी, आपु निरंजन राइ। सुंदर उपजत देखिए, बहुरयौ जाइ बिलाइ॥२॥ (सन्त सुधासार, पृ० ६४८) TE " . . . १. देखिए-डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल-हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ० १६२-६३। २. देखिए- कबीर ग्रंथावली, पद ३३८, पृ० २०२ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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