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________________ २५४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद सुमिरन रूपी साबुन और जल रूपी सतसंग से अपना अंग निर्मल कर लेना चाहिए, जब इस साधना से मल दूर हो जाता है, तब आत्मा रूपी अम्बर निर्विकार हो जाता है।' धरमदास जी भी प्रिय मिलन के लिए अजपा जाप पर जोर देते हैं। और संत जगजीवन का विश्वास है कि जो अजपा जाप करता है, वह 'परमज्ञान' को प्राप्त होता है। भीखा साहब भी बताते हैं कि दुनिया लोक और वेद मत की स्थापना में लगी हुई है, जब कि उनके गुरु अजपा जाप को ही सर्वोपरि समझते हैं। दयाबाई ने पद्मासन में बैठकर अजपा जाप करने पर सर्वाधिक जोर दिया है। उनका कहना है कि जो हृदय कमल में सुरति लगाकर अजपा जाप करता है, उसके अन्तर में विमल ज्ञान प्रकट होता है और सभी कल्मष बह जाते हैं। यही नहीं यह जप करते करते मन ऐसे स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ बिना बिजली के प्रकाश हो रहा है और बिना मेघ के फुहार पड़ रही है। मन ऐसे दृश्य को देखकर वहीं मग्न हो जाता है। जैन कवियों में अजपा : __ जैन मुनियों ने भी बाह्य साधना की अपेक्षा अन्तःसाधना पर जोर दिया है, पाषंड की निन्दा की है और समस्त बाह्य आडम्बरों का विरोध किया है। उनको विश्वास है कि चित्त शुद्धि ही ब्रह्मत्व प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। अतएव जब मन निर्मल होगा, तब किसी बाहरी साधना की अपेक्षा नहीं रह जाएगी। मुनि रामसिंह का कहना है कि जब तक आभ्यंतर चित्त मलिन है, तब तक बाह्य तप से कोई लाभ नहीं। अतएव निर्मल चित्त में ही निरंजन को धारण करने की आवश्यकता है। इसी से सभी मलों से छुटकारा मिल जाता है। नाथ योगियों और संतों के समान ही जैन कवियों ने 'सोह' शब्द को ध्यान में १. संत सुधा सार (खण्ड १), पृ० ५२६ । २. संत सुवा सार (खण्ड २), पृ० १३ । ३. संत सुधा सार (खण्ड २), पृ० ६६ । ४. संत सुधा सार ( खण्ड २), पृ० १४५ । पद्मासन सूं बैठ करि, अंतर दृष्टि लगाव । दया जाप अजपा जपो, सुरति स्वांस में लाव ॥१॥ हृदय कमल में सुरति धरि, अजपा जपै जो कोय । विमल ज्ञान प्रगटै तहाँ, कलमख डारै खोय ।।४।। बिन दामिन उजियार अति, बिन घन परत फुहार । मगन भयो मनुवाँ तहाँ, दया निहार निहार ||६|| (संत सुधासार, पृ० २०५-२०६) अभिंतर चित्ति वि मइलियई बाहिरि काई तवेण । चित्ति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ॥६शा (पाडुड़दोहा, पृ० १८)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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