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________________ एकादश अध्याय आनन्दतिलक ने कहा है कि 'समरस भावे रंगिया अप्पा देवइ सोई(आणन्दा, दो० नं०४०)। इसलिए जैसा कि बनारसीदास ने सुझाया है कि अन्नपातमा रूपी धोबी को भेद-ज्ञान रूपी साबुन और समरसी भाव रूपी निर्मल जल से आत्म-गुण रूपी वस्त्र को स्वच्छ करना चाहिए।' यही परम सुख है, इसीलिए योगीन्दु मुनि शून्य पद में ध्यान निमग्न ऐसे योगी को बार बार प्रणाम करते हैं जो पाप पुण्य भाव से विजित है और समरसी भाव को प्राप्त हो चुका है। जिस प्रकार शैव और शाक्त साधकों ने शिव शक्ति के मिलन द्वारा समरसता की स्थिति का वर्णन किया है, उसी प्रकार के भाव जैन साधकों में भी देखने को मिल जाते हैं। मूनि रामसिंह ने दिन के मिलन की चर्चा की है (पाहड़दोहा, दो० नं० १२७) । यही नहीं, जैसे मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा था कि शक्ति के बिना शिव नहीं रहते और शिव के बिना शक्ति नहीं रह सकती, ठीक उसी प्रकार मुनि रामसिंह ने भी कहा कि शिव के बिना शक्ति और शक्ति के बिना शिव अपना व्यापार नहीं कर सकते। मारे मृष्टि व्यापार के मूल कारण यही दोनों परम तत्व हैं। इनको जान लेने से किसी प्रकार के मोहादि नहीं रह जाते : सिव विणु सत्ति ण वावरह, सिउ पुणु सत्ति विहीणु । दोहि मि जाणहिं सयलु जगु, बुज्झइ मोविलीणु ।।५।। (पाहुड़दोहा, पृ०१८) नाम सुमिरन और अजपा जाप सुमिरन और उसके भेद : सामान्यतया भगवन्नाम स्मरण की महिमा प्राचीन काल से ही रही है, लेकिन मध्य युग में 'नाम सुमिरन' को विशेष महत्व मिला। वस्तुत: मध्य युग की समस्त धर्म साधना को 'नाम साधना' की संज्ञा दी जा सकती है। निर्गणमार्गियों और सगुणमागियों दोनों ने नाम स्मरण को समान महत्व दिया है। संतों ने 'सूमरन' के कई सोपानों की चर्चा की है। साधारण रूप से ईश्वर का १. भेद ग्यान साबुन भयो, समरस निरमल नीर । धोबी अन्तर आत्मा, धौवै निज गुन चीर ॥६॥ (नाटक समयसार, पृ० १६१) सुरणउं पउं झायंताहं बलि बलि जोहयाडाह । समरसि भाउ परेण सहु पुण्णु वि पाउ ण जाहं ॥२-१५६॥ (परमात्म प्रकाश, पृ० ३०१) २.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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