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________________ एकादश अध्याय ३२ २४९ पं. गोपीनाथ कविराज ने लिखा है कि तांत्रिकों की रहस्य साधना में तीन अवस्थानों की चर्चा मिलती है-(१) पशुभात्र, (२) वीरभाव और (३) दिव्य भाव या परम भाव । पशु भाव में संयम, ब्रह्मचर्य, यम, नियमादि की पावश्यकता रहती है। इस भूमि में विन्दु की शुद्धि तथा स्थिरता सिद्ध हो जाती है। उसके अनन्तर वीर भाव में प्रकृति संयोग या प्रकृति संभोग का अधिकार आता है।....."इस अवस्था में प्रकृति के साथ पुरुप का संघर्ष होता है, जिसमें वीरत्व को आवश्यकता होती है। 'वीर भाव के अनन्तर प्रकृति के साथ सहयोग करते हुए साधक क्रमशः दिव्य भाव की ओर अग्रसर होता है। पहली दशा में प्रकृति का त्याग जैसे आवश्यक है। दूसरी दशा में योग्यता लाभ होने पर प्रकृति का ग्रहण भी वैसे ही आवश्यक है, तृतीय अवस्था में न त्याग है न ग्रहण। उस समय प्रकृति के अधीन हाने पर पुरुष और प्रकृति दोनों सम्मिलित होकर एक अखण्ड सत्ता में प्रवेश करते हैं। इस परम भाव में पुरुष और प्रकृति का भेद नहीं रहता। यही शिव शक्ति का सामरस्य है।" शैव, शाक्त तथा कौल साधना में इस मामरस्य भाव का वर्णन दसरे रूप में किया गया है। शैव और शाक्त साधना के अनुसार शिव शक्ति के विषमीभाव से ही यह सृष्टि प्रपंच है। संसार का यह व्यापार तभी तक है, जब तक शिव शक्ति में भेद है। दोनों के मिलन से सामरस्य की स्थिति आ जाती है। 'कौल' का अर्थ ही है कुल और अकुल का मिलन, कुल अर्थात शक्ति और 'अकुल' अर्थात् शिव । शक्ति सृष्टि रूपा है, जागतिक व्यापार का कारण है, शिव निर्गुण निराकार है। शिव का धर्म है शक्ति। दोनों का सम्बन्ध अभिन्न है। अतएव दोनों एक दूसरे से अलग रह हो नहीं सकते। कौल ज्ञान निर्णय में कहा गया है कि शिव के बिना शक्ति नहीं रह सकती और शक्ति के बिना शिव नहीं होते। शिव-शक्ति का संयोग ही सामरस्य है। यही परम महासुख है। जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है-"जोइ जोइ पिण्डे सोइ ब्रह्मण्डे।" इसी आधार पर शरीर स्थित जीव और ब्रह्म के मिलन की भी चर्चा की गई है। नाथ योगियों द्वारा कहा गया कि कुण्डलिनी शक्ति जब उबुद्ध होकर सपना मार्ग से पट चक्रों को पार कर सहस्रार चक्र में स्थित शिव से मिलती है. तब समरसता की स्थिति आती है। जैन साधकों में भी इस 'सामरस्य भाव' का वर्णन मिलता है, यद्यपि प्रज्ञा-उपाय के संयोग की बात कहीं भी नहीं आने पाई है। जैन कवियों ने १. तान्त्रिक बौद्ध साधना और साहित्य का प्राक्कथन, पृ०११-१२। २. देखिए-नाथ सम्प्रदाय, पृ०६६ । समरसानन्दरूपेण एकाकारं चराचरे। ये च ज्ञातं स्वदेहस्थमकुलवीरं महाद्भुतम् ॥ (अकुलवीर तन्त्र, बी० ११५)।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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