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________________ दशम अध्याय २३ है, सुरति का सिदूर लगा है, निरति की वेणी संवारी गई है, अन्तर में प्रजपा की अनहद ध्वनि निनादित हो रही है और आनन्द के घन की झड़ी लगी हुई है। ब्रह्म का स्वरूप: आनन्दघन का ब्रह्म भी कबीर के ब्रह्म के ममान निर्गण, निराकार. अलख, निरंजन और अज है। अनन्त है उसकी महिमा और अनन्त हैं उसके नाम रूप। कर उसे यदा कदा राम, कृष्ण, गोविन्द, केशव, माधव आदि पौराणिक नामों से भी पुकारते हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे सगुणवाद के समर्थक हैं अथवा ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं। वस्तुत: किसी भी प्रकार की संकीर्णता उनको मान्य नहीं। वे अपने इष्टदेव को किसी भी नाम मे, चाहे वह मगूणवाची हो या निर्गवाची पुकारने में संकोच या हिचक का अनुभव नहीं करते। वैसे उनके सम्बन्ध में किसी को भ्रम न हो, इसलिए उन्होंने अपने आराध्य के विषय में स्पष्टीकरण भी कर दिया है। उन्होंने घोषणा कर दिया है कि उनका 'अल्लाह' अलख निरंजन देव है, जो हर प्रकार की मेवा से परे है, उनका 'विष्ण' वह है जो सर्वव्यापक है, 'कृष्ण' वह है, जिसने संसार का निर्माण किया है, 'गोविन्द' वह है जो ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, 'राम' वह है जो युग-युग से रम रहा है, 'खुदा' वह है जो दसों द्वारों को खोल देता है, 'रब' वह है जो चौरासी लाख योनियों का रक्षक है, 'करीम' वह है जो सभी कार्य कर रहा है, 'गोरख' वह है जो ज्ञान मे गम्य है, 'महादेव' वह है जो मन की जानता है। इस प्रकार अनन्त हैं उसके नाम, अपार है उसकी महिमा। सन्त मानन्दघन ने भी लगभग कबीर के ही शब्दों में 'ब्रह्म' के स्वरूप का विश्लेषण किया है। एकाध पदों में उन्होंने पौराणिक दान का भी प्रयोग किया है। वे कभी बजनाथ के समक्ष अपनी दीनता व्यक्त करते हैं पद६३) अाज सुह गन नारं', अवधू श्राज.। मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंगचाग। प्रेम प्रतीति राग रुचि रंगत, पहिरे झीनी सारी। महिदी भक्ति रंग की राची, भाव अंजन मुग्वकारी । महज मुभाव चुरी मैं पैन्हो, थिरता ककन भारी। ध्यान उरबसी उर में राखी, पिय गुनमाल अधारी। सुरत सिन्दूर मांग रंगराती, निरत बैन समारी । उपजी ज्योति उद्योत घट त्रिभुवन पारसी केवल कारी। उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी । झड़ी सदा आनन्दधन बरसत, बन मोर एकनतारी ॥२०॥ (अानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३६५) २. कबीर प्रन्थावल, पद ३२७, पृ० १६६ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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