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________________ २२६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद 'तित्थई तित्थु भमंताहं मूढ़हं मोक्खु ण होइ (परमात्मप्रकाश, २-८५)। और मुनि रामसिंह ने भी कहा था कि हे मूर्ख ! एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ को जाता हुआ तू जल से चमड़े को धोता है। किन्तु तू इस मन को किस प्रकार धोएगा जो पाप मल से मलिन है : तित्थई तिथ भमेहि बढ़ धोयउ चम्मु जलेण । एहु मणु किम धोएसि तुहुँ मइलउ पावमलेण ॥१६३॥ (पाहुड़दोहा, पृ० ४८) तीर्थ स्नान के ही समान जप, तप, व्रत, छापा, तिलक आदि की भी समान रूप से निन्दा की गई है। कबीर ने कहा है कि जिसके हृदय में दूसरा ही भाव है, उसके लिए क्या जप, क्या तप और क्या पूजा ? कि जपु किआ तपु किआ व्रत पूजा। जाकै हिरदै भाउ है दूजा ॥१॥ ( संत कबीर, पृ०८) योगीन्दु मुनि ने भी कहा था कि व्रत, तप, संयम और शील आदि तो सांसारिक व्यवहार मात्र हैं। मोक्ष का कारण तो एक परमतत्व है, जो तीनों लोकों का सार है : वउ तउ संजमु सील जिम इउ सव्वई बवहारु । मोक्खहं कारणु एक्कु मुणि जो तइलोयह सारु ॥३३॥ ( योगसार, पृ० ३७८) प्रायः सभी साधक अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जो परमसत्य है, उसकी जानकारी ऐन्द्रिय ज्ञान से सम्भव नहीं, बुद्धि वहाँ तक पहंचने के पूर्व ही थक जाती है। अतएव शास्त्रों के अध्ययन मात्र से ब्रह्मानुभूति नहीं हो सकती, तर्कणा शक्ति भले ही बढ़ जाय। इसीलिए इन संत कवियों ने 'पुस्तक लेखी की अपेक्षा अनुभव देखी' बात पर अधिक बल दिया है, षड्दर्शन के झमेले में न पड़कर स्वसंवेदन ज्ञान का सहारा लिया है। इस विषय में कबीर और मुनि रामसिंह ऐसे एकमत हैं कि लगता है कबीर ने 'दोहापाहड़' के भाव को ही अपनी भाषा में कह दिया है। एक उदाहरण देखिए :मुनि रामसिंह : बहुयई पढ़ियई मढ़ पर तालू सुक्कइ जेण । एक्कु जि अक्खरु तं पढ़हु सिवपुरि गम्मइ जेण ॥६७|| (पाहु दोहा, पृ. ३०) कबीर : पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोय । एकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होय ॥४|| (कबीर ग्रन्थावली, पृ० ३६) .
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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