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________________ नवम अध्याय होते हुए भी बलवान है और उसने ब्रह्मा, विष्णु, महादेव को भी छला है।' एक अन्य स्थान पर आपने माया को बाघिन बताया है और कहा है कि यह माया रूपी बाघिन दिन को मन मोहती है और रात में सरोवर का शोषण करती है। मूर्ख लोग जानकर भी घर-घर में इस व्याघ्रा का पोषण करते हैं : दिवसै बाघणि मन मोहै राति सरोवर सोपे । जाणि बूझि रे मूरिष लोया घरि-घरि बाघिण पो । (हिन्दी काव्यधारा, पृ० १६०) संत अानन्दघन ने इसी प्रकार 'माया' के द्वारा सभी के छने जाने की बात इस प्रकार कही है : अवूध ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी। बम्भन के घर न्हाती धोती, जोगी के घर चेली ।। कलमा पढ़ पढ़ भई रे तुरकड़ो, तो आपही आप अकेली। ससुरो हमारो बालो भोलो, सासू बाल कुंवारी॥ पियुजो हमारे प्हो? पारणिये, तो मैं हूं मुलावनहारी। नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुंवारी, पुत्र जणावन हारी। (अानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ४०३-४०४) उलटवासियों की परम्परा तो प्राचीन है, किन्तु सिद्धों और नाथों ने इस शैली को अधिक व्यापक बनाया। उनकी रहस्यात्मक उक्तियाँ प्रायः उलटवासियों द्वारा व्यक्त हुई हैं, इसे हम पहले कह पाए हैं-(देखिए, अध्याय नं०८)। जैन काव्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और संत आनन्दघन ने विशेष रूप से इस पद्धति को अपनाया। निष्कर्ष : दोनों साधना मार्गों में इन कतिपय समानताओं के होते हुए भी यह मानना संगत नहीं होगा कि जैन काव्य में जो कुछ है वह 'नाथ सम्प्रदाय' प्रभावापन्न है अथवा दोनों में कोई अन्तर नहीं। वस्तुतः सभी साधक अपने अपने मार्ग पर चलते हए भी अनेक विषयों पर एक मत हो जाते थे, कारण कि सभी का लक्ष्य एक ही था-ब्रह्मानुभूति और तज्जन्य आनन्द की प्राप्ति । फिर भी नाथ योगियों ने अपनी उक्तियों को जितना जटिल और रहस्यमय बना दिया है, उतनी अस्पष्टता जैन काव्य में नहीं आने पाई है। जैन मुनियों ने अपनी बात को सीधे सरल माध्यम से ही कहने की चेष्टा की है। योगियों के 'शून्य' की चर्चा भी जैन मनियों के द्वारा नहीं हई है। इसके अतिरिक्त नाथ सिद्धों के लिए 'हठयोग' ही मल और प्रधान साधना थी। प्रत्येक योगी के लिए इसी साधना का अनसरण अनिवार्य था, जबकि जैन मुनि अपने ढंग पर ब्रह्म-पद-प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील थे, कभी-कभी 'योग' की चर्चा अवश्य कर देते थे। १. सपणीं कहै मै अबला बलिया । ब्रह्मा बिस्न महादेव छलिया ॥२॥ (हिन्दी काव्यधारा, पृ० १५७)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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