SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम अध्याय २८ २१७ मार्ग में रहती है। साधक नाना प्रकार की चेष्टाएँ करके 'कुंडलिनी' को ऊर्ध्वमुख करता है। इन योगियों ने शरीर रचना का वर्णन करते हुए षट्चक्रों और तीन नाड़ियों की भी कल्पना की है। साधारण स्थिति में व्यक्ति की इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ चला करती है। किन्तु जब योगी प्राणायाम द्वारा इन दोनों श्वास मागों को रोक लेता है, तब इनके मध्य की 'सुषुम्ना' नाड़ी का द्वार खुलता है। कुंडलिनी शक्ति इसी नाड़ी के मार्ग से ऊपर बढ़ती है। मार्ग में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्रास्य चक्र और आज्ञा चक्र को पार कर, 'शक्ति' मस्तिष्क के निकट स्थित 'शून्य चक्र' में पहुंचती है। यहीं पर जीवात्मा को पहुंचा देना योगी का चरम लक्ष्य है। इस स्थान पर जिस कमल की कल्पना की गई है, उसमें सहस्रदल हैं। इसी सहस्रार चक्र या शून्य चक्र को 'गगन मंडल' भी कहा गया है। कुंडलिनी शक्ति के इस प्रकार जागृत होनेपर योगी अनहदनाद का श्रवण करता है, ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है और 'जीवन्मुक्त' अवस्था को प्राप्त हो जाता है। गोरखनाथ ने इसी साधना पद्धति द्वारा 'अमृतरस' के पान का बार-बार उपदेश दिया है। उनका विश्वास है कि इस 'आकाश तत्व' में निहित 'निर्वाण पद' के रहस्य को जो जान लेता है, उसका फिर आवागमन नहीं होता।' काणेरी जी गगन मण्डल' में बजने वाले इसी अनहद 'तूर' की बात करते हैं और गोपीचन्द कहते हैं कि 'गगन मण्डल में ही हमारी मढ़ी ( निवास स्थान ) है, चन्द सूर तब हैं, 'सहज सील' पत्र है और अनहद सींगी नाद है। चौरंगीनाथ ने 'प्राण सांकली' में इस साधना का विस्तार से वर्णन किया है। जैन कवियों में मूनि रामसिंह और संत आनन्दघन में विशेष रूप से इस साधना की बातें मिल जाती हैं। मूनि रामसिंह ब्रह्म की प्राप्ति के लिए किसी बाह्य विधान की अपेक्षा मन और इन्द्रियों को नियन्त्रित कर शरीर में ही स्थित ब्रह्म के दर्शन की बात करते हैं। उनका कहना है कि अम्बर (गगन मण्डल ) में जो निरंतर शब्द होता रहता है, मूढ़ जन उसका श्रवण नहीं कर पाते। वह तो सुनाई तभी पड़ता है, जब मन पाँचो इन्द्रियों सहित अस्त हो जाता है १. आकाश तत सदा सिव जांण | तास अभिअन्तरि पद निरवाण। दंडे परनाने गुरुमुखि जोह। बाहुडि आवागमन न होइ । (हिन्दी काव्यधारा, पृ० १५६) द्यौमें चन्दा राते सूप, गगन मण्डल में बाजे तुर। सति का सबद कणेरी कहै, परमहंस क है न रहै । (नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० ११) ३. गगन मण्डल में मढ़ी हमारी। चन्द सूर ना तूंबं जी। सहज सौल ना पत्र हमारे । अनहद सींगी नाद जी ||३|| (नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ०२०) ४. नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ०३६ से १७ तक।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy