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________________ अष्टम अभ्याय २०१ बिहार के पाँच हुन्' के सहारे द्वारा उपस्थित 'वर्णरत्नाकर' की सूची, तिब्बत के प्रधान गुरुओं ( १०९१ - १२७४ ) की ग्रन्थावली श्री राहुल जी द्वारा बनाई गई सूची हठयोग प्रदीपिका की सूची तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रस्तुत सूची प्रमुख हैं। इन सूत्रियों को देखने से पता चलता है कि एक सूची दूसरी सूची में काफी भिन्न है। की सूची को तो द्विवेदी जी ने नाथ सिद्धों की सूची माना है। लाकर वस्तुतः ८४ अंक सिद्धों के लिए काफी महत्व रखने लगा था। इसलिए प्रत्येक सूचीकार ने किसी न किसी प्रकार उक्त संख्या पूरी करने का प्रयत्न किया है। चौरासी शब्द के अनेक प्रकार से अर्थ भी लगाए गए हैं। इस गदका सांकेतिक और तांत्रिक महत्व भी है। किसी ने इसका सम्बन्ध =४ आसनों से जोड़ा है तो किसी में ८४ लाख योनियों से, किसी ने इसको बारह राशियों तथा सात ग्रहों का गुणनफल माना है तो किसी ने इसको रहस्य संख्या बताया है। यही कारण है कि सिद्धों के साथ शब्द अभिन्न रूप से जुड़ गया। अतएव जो सूचियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अनेक काल्पनिक और अनैतिहासिक निद्धों के नाम भी जुड़े हुए हैं। हां, इनमें कुछ सिद्ध ऐतिहासिक भी हैं। वे विशेष महत्व रखते हैं । उनके नाम भी प्रायः सभी सूचियों में मिल जाते हैं। सरहपा, लुइपा, सवरपा, कण्हपा, तन्तिपा, भुसुकपा आदि ऐसे ही सिद्ध हैं । सिद्धों की संख्या के अनिश्चित होने के कारण ही उनके समय तथा आदि सिद्ध के सम्बन्ध में भी मतभेद है। प्रवोधचन्द्र बागची ने लुइपा को आदि सिद्ध माना है और राहुल सांकृत्यायन ने सरहपाद को चौरासी सिद्धों में प्रथम तथा आदि सिद्ध बताया है । इसी प्रकार इनके समय के सम्बन्ध में भी मतभेद है। लुइपा को कुछ लोग सातवीं और अन्य आठवीं शताब्दी का सिद्ध मानते हैं। सरहपा का समय विनयतोष भट्टाचार्य ने सन् ६३३ ई० माना है और राहुल ने सरहपा को महाराज धर्मपाल ( ७६८ - ८०९ ) का समकालीन सिद्ध किया है । यहाँ पर विस्तार से इन सब तथ्यों का परीक्षण सम्भव नहीं, लेकिन सरह की भाषा आदि के आधार पर उन्हें आठवीं शती का कवि मानना अधिक संगत होगा । इसके पश्चात् लगभग चार सौ वर्षों तक इस साधना का जोर रहा और सिद्धों को संख्या में विस्तार होता गया । १२ वीं शती के पश्चात् नाथ सिद्धों का जोर बढ़ता है और इनकी संख्या में ह्रास होने लगता है । नाथ सम्प्रदाय इन सिद्धों की हो १. देखए - बौद्ध गान श्री दोहा - पदकर्तादेर परिचय, पृ० ३५ । २. देखिए - पुरातत्व निबंधावली, पृ० १४४ ( कसे पतक ) | ३. देखिए - तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य, पृ० २१ । ४. नाथ सम्प्रदाय, पृ० ३३ से ३६ तक | ५. देखिए - कौल ज्ञाननिर्णय, सं० प्रबोधचन्द्र बागची भूमिका, पृ० २४ | ६. पुरातत्व निबन्धावली, पृ० १४० और १५५ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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