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________________ अष्टम अभ्याय लक्ष्मीकरा ने 'अद्वयमिद्ध' से नवीन अद्वैतवादी मत सहजयान का प्रवर्तन किया, जो अभी भी बाउलों में जीवित है।' इन्हीं विद्वानों के आधार पर श्री नागेन्द्रनाथ उपाध्याय ने भी निष्कर्ष निकाला है कि सहजयान वज्रयान का परवर्ती था और सहजयान ने वज्रयान के वच (कठोर-कठिन) के स्थान पर सहज (सरल-सगिक) को प्रतिष्ठा की। इस प्रकार कुछ विद्वानों ने सहजयान को वज्रयान की एक शाखा तथा उसका परवर्ती उपयान कहा। लेकिन डा. गोविन्द निगमपन ने इसके विपरीत महजयान को वज्रयान का पूर्ववर्ती मानते हए विचित्र प्रकार के निष्कर्ष निकाले हैं। आपने लिखा है कि “जीवन की स्वाभाविक गति में भोग का भी थोड़ा बहुत स्थान है। अत: इन मिद्धों ने 'धर्माविरुद्ध काम' को अपनी साधना में स्थान दिया है। आगे चलकर भोग को साधना में आवश्यक समझा जाने लगा। वज्रयानियों ने इन सहजयानी सिद्धों के सिद्धान्तों का अर्थ के स्थान पर खूब अनर्थ किया है। आपका आगे चलकर फिर कहना है कि सहजयान बहुत दिनों तक अपने इस स्वाभाविक और महज भाव को स्थिर न रख सका। उस पर तन्त्र-मन्त्र प्रधान वैवल्यवाद का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। उसकी परिणति वज्रयान के रूप में हो गई। उसी समय से सहजयान और वज्रयान का सम्मिश्रण हो गया। इन उद्धरणों से यह निष्कर्ष निकलते हैं कि (अ) सहजयान वजयान का पूर्ववर्ती था, (आ) सिद्ध सहजयानी थे, वज्रयानी नहीं, (इ) सहजयान में 'धर्माविरुद्ध काम' की ही मान्यता थी, (ई) सहजयान, वैपुल्यवाद (महायान) के पहले से ही स्वतन्त्र और स्वस्थ रूप में विकसित हो रहा था, बाद में वैपुल्यवाद के प्रभाव से वह वज्रयान में बदल गया। लेकिन डा० त्रिगुणायत के उद्धरणों के आधार पर निकाले गए उक्त चारों निष्कर्ष सही नहीं प्रतीत होते। वज्रयान का प्रारम्भ ईसा की आठवीं शताब्दी से माना गया है। इसके पूर्व सहजयान नामक किसी सम्प्रदाय के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। डा० किमूर ने चीनी वौद्ध धर्म में प्रचलित जिस सहजयान (इ ग्य दो) शब्द का उल्लेख किया है, वह महायान का ही पर्यायवाची है। यह कहना कि सिद्ध वज्रयानी नहीं थे, तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। वज्रयान का जो समय माना गया है, लगभग सभी सिद्ध उसी अवधि में हुए थे। जिस मैथन भाव की चर्चा वज्रयानियों के लिए की जाती है, वह लगभग सभी सिद्धों में मिल जाता है। यद्यपि सरहपाद ने सरल और सहज जीवन पर जोर दिया है . १. देखिए-श्री नागेन्द्र नाथ उपाध्याय-तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य, पृ० १८८। २. तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य, पृ० १८४ । ३. कबीर की विचारधारा, पृ० १२६ । . ४. , , पृ० १२८ । ५. डा. धर्मवीर भारती-सिद्ध साहित्य, पृ०१४ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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