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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद लोक में अवतार नहीं लिया या (२) विशेष प्रयोजन से मैथुन का सेवन किया जा सकता है, काफी क्रान्तिकारी थे। आगे चलकर इनका व्यापक प्रभाव पड़ा और बौद्ध धर्म विभिन्न प्रकार की लौकिक-अलौकिक कथाओं तथा उचितअनुचित आचारों का सम्प्रदाय बन गया। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, गौतम बुद्ध का लौकिक रूप गौण होता गया और उनके कार्य एवं जीवन में अलौकिक तथा चामत्कारिक घटनायें जुड़ती गई। वैपुल्यवादियों ने उनके 'मानव रूप में जन्म' को ही अस्वीकार कर दिया था। इससे उनमें देवत्व की प्रतिष्ठा होने लगी और एक दिन तो ऐसा भी आया जब हिन्दुओं ने भी ईश्वर के अन्य अवतारों के साथ बुद्ध की भी गणना प्रारम्भ कर दी। बुद्ध में देवत्व की प्रतिष्ठा हो जाने पर उनकी स्तुति और वंदना हेतु मन्त्रों एवं सूत्रों की भी रचना प्रारम्भ हो गई। महायान और तन्त्र साधना : कतिपय विद्वानों का अनुमान है कि इसी समय तांत्रिक साधना ने महायान सम्प्रदाय को प्रभावित किया। इतना तो निश्चित ही है कि चौथी पाँचवीं शताब्दी के बाद से न केवल बौद्ध धर्म अपितु शैव, वैष्णव आदि अन्य सम्प्रदाय भी तन्त्र साधना से व्यापक रूप से प्रभावित हुए थे। लेकिन यहाँ पर एक तथ्य को स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आगे चल कर बौद्ध धर्म में ( वज्रयान में ) वामाचार का जिस रूप में जोर बढ़ा, वह मात्र तांत्रिकों की ही देन नहीं था। वस्तुतः तन्त्र और तांत्रिक साधना के सम्बन्ध में विद्वानों में अनेक प्रकार के भ्रम विद्यमान रहे हैं। तन्त्र शब्द 'तन्' धातु से बना है, जिसका अर्थ हमा विस्तार करना'। इस प्रकार तन्त्र वह शास्त्र है जिससे ज्ञान का विकास होता है-'तान्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन इति तन्त्रम् ।" शैव मतावलम्बियों में 'तन्त्र' उन शास्त्रों को कहा गया है जिनमें विपुल अर्थ वाले मन्त्र निहित हों तथा जो साधकों का त्राण करते हों। सामान्य रूप से तन्त्र से तात्पर्य उस ज्ञान से होता था "जिस में देवता के स्वरूप, गुण, कर्म आदि का चिन्तन किया गया हो, तद्विषयक मन्त्रों का उद्धार किया गया हो, उन मन्त्रों को संयोजित कर देवता का ध्यान तथा उपासना के पाँचो अंग अर्थात पटल, पद्धति, कवच, सहस्र नाम और स्तोत्र आदि व्यवस्थित रूप से दिखलाए गए हों। $. It is defined as the Shastra by which knowledge is __spread.'-Sir John Woodroffe-Shakti and Shakta, P. 142. २. बलदेव उपाध्याय--बौद्ध दर्शन, पृ० ४१७ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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