SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अभ्याय १११ सद्गुरु के प्रसाद से ही केवलज्ञान का स्फुरण होता है और सद्गुरु के तुष्ट होने पर ही मुक्ति तिया के घर मे वास सम्भव है।' यहां 'सद्गुरु' शब्द विशेष रूप से मननीय है। हर व्यक्ति को गुरु बना लेने से काम नहीं चल जाता। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि ऐसे हो साधु या मुनि को गुरु बनाना श्रेयस्कर है, जो सभ्यज्ञानी हो, जिसे रत्नत्रय को उपलब्धि हो चुकी हो, जो पर पदार्थों से स्वात्मा को मुक्त बना चुका हो और अध्यात्म पथ पर काफी दूर तक जा चुका हो अर्थात् वह सद्गुरु हो, असद्गुरु न हो, अन्यथा 'अन्धेनेव नीयमाना यथान्धाः' की ही कहावत चरितार्थ होगी। प्रायः ऐसे व्यक्ति मिल जाते हैं जो दम्भ के प्रदर्शनार्थ अथवा लोभार्थ गुरु बनने की चेष्टा करते हैं। ऐसे कगरुओं से बचना अनिवार्य है। आनन्दतिलक ने कहा है कि 'कूगुरुह पूजि म सिर धुणहु (दो० नं. ३७)' अर्थात् कुगुरु की पूजा न करो, जिससे बाद को पछताना पड़े। जैसा कि रामदास ने 'दासबोध' में कहा है कि सद्गुरु ऐसा होना चाहिए जो निर्मल आत्मज्ञान समन्वित हो और आत्मोन्मुख जीवन से पूर्ण सन्तुष्ट हो। जैन सम्प्रदाय में 'सदगुरु' भी निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से दो प्रकार के हो जाते हैं। व्यवहार गुरु तो लोक प्रसिद्ध गुरु है और निश्चय गुरु अपना आत्मा ही होता है, जिसकी वाणी अन्तर्नाद कहलाती है और जो कभी कभी सुनाई भी पड़ती है। इसीलिए पूज्यपाद ने 'समाधितन्त्र' में कहा है कि आत्मा ही देहादि पर पदार्थों में आत्मबुद्धि से अपने को संसार में ले जाता है और वही आत्मा अपने आत्मा में ही आत्मबुद्धि से अपने को निर्वाण में ले जाता है। अतः निश्चयनय बुद्धि से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं। तत्वतः आत्मा ही आत्मा का गुरु हा भी, क्योंकि वही अपने भीतर अपने यथार्थ हित की अभिलाषा करता है और अपने आप को अपने हित में प्रेरणा भी देता है, किन्तु हम अपनी मूढ़ता के कारण आत्मगुरु को पहचान नहीं पाते। इसी रहस्य को जानना साधक का परम कर्तव्य है। १. केवलणाणवि उज्जई सद्गुरु वचन पसाउ ॥३३॥ सद्गुरु तूठा पावयई मुक्ति तिया घर वासु ॥३४।। (आणंदा) 2. "The primary characteristic of a Guru is that he possesses immaculate self-knowledge and the satisfaction of a determinate life in the self (Mysticism in Maharashtra, Page 394 ) नयत्यात्मात्मेव जन्मनिर्वाणमेव च । गुरुगत्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः ॥७॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy