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________________ सप्तम अध्याय १८८६ लिया हो, जिसने अपने ज्ञान और तप के बल से स्व-पर भेद जान लिया हो और जो पूर्ण निर्विकार और निःकलुष हो चुका हो। सभी सम्प्रदायों और संतों ने ऐसे गुरु की महत्ता का प्रतिपादन किया है। सिद्धों और नाथों के साहित्य में गुरु को सर्वोपरि बताया गया है, उसकी सत्ता अद्वितीय सिद्ध की गई है। कबीर आदि संतों ने गुरु को गोबिन्द के बराबर ही नहीं माना, उससे श्रेष्ठ भी बताया क्योंकि उनको विश्वास था कि 'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर' उनको धारणा थी कि गुरु की कृपा कटाक्ष मात्र से सिद्धि प्राप्त हो जाती है। किन्तु जब तक साधक उसकी कृपा कोर का भाजन नहीं बनता, तब तक जन्मजन्मांतर तप करने से और शरीर गलाने से मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता । महाराष्ट्री सतों ने भी गुरु को सर्वोच्च स्थान दिया है। संत ज्ञानेश्वर का कहना है कि वह गुरु का महत्व वर्णन करने में असमर्थ हैं । उसके गुण अनन्त हैं. अवर्णनीय हैं। क्या उनका पूर्ण वर्णन कभी सम्भव हो सकता है ? क्या सूर्य को प्रकाश दिलाना सम्भव है? क्या कल्पतर को पुष्पों से सजाना सम्भव है ? क्या चन्दन को अधिक सुगधिपूर्ण बनाना सम्भव है ? संत रामदास ने भी गुरु को परमात्मा से बढ़कर माना है। उनका कहना है कि गुरु की महत्ता के समक्ष परमात्मा का महत्व कुछ भी नहीं है। गुरु और परमात्मा को बराबर ही समझने वाला शिष्य, कुशिष्य है । अनन्त हैं उसके गुण, असीम हैं उसकी विशेषताएं और अनिवर्चनीय है उसकी गरिमा वह सूर्य से बढ़कर है, क्योंकि सूर्य तम का विनाश करता है, किन्तु अंधकार पुनः आ जाता है और गुरु की कृपा से जब जन्म मरण की श्रृंखला भंग हो जाती है तो सदैव के लिए वह पारस पत्थर से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि पारस पत्थर लौह धातु को स्वर्णमय बना देता है, किन्तु उसे 'पारस' नहीं बना सकता, जबकि सच्चे गुरु का शिष्य स्वयमेव 'परमात्मा' बन जाता है। उसकी तुलना सागर से भी नहीं की जा सकती, क्योंकि वह सारी है। स्वर्ण गिरि भी उसकी समता को नहीं पहुंच सकता, क्योंकि अन्ततः वह पाषाण है । वह पृथ्वी, कल्पवृक्ष और अमृत से भी महान् है । 3 जैन साधकों ने भी गुरु की श्रेष्ठता और महत्ता को स्वीकृति दी है। उन्होंने भी कहा है कि जब तक गुरु की कृपा नहीं होती तब तक व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि में फँसा हुआ संसार में भ्रमण करता रहता है तथा सद् और असद् में जड़ और चेतन में अन्तर नहीं कर पाता है । वह तब तक कुतीर्थों में घूमता रहता है और धूर्तता करता रहता है, जब तक गुरु के प्रसाद से आत्मा को नहीं १. २. R. D. Ranade – Mysticism in Maharashtra, Page 49. 'Before the greatness of the Guru, the Greatness of God is as nothing. He must be a bad disciple who regards his Guru and God as of equal count.' (Mysticism in Maharashtra, Page 992 ) R. D. Ranade Mysticism in Maharashtra, Page 999.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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