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________________ सप्तम अध्याय १८५ इसीलिए सभी साधकों ने कोरे शास्त्र ज्ञान की निन्दा की है, क्योंकि उन्होंने अनुभव से जान लिया था कि 'वाक्य ज्ञान अत्यन्त निपून भव पार न पावै कोई।' उन्होंने देखा था कि 'पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा पडित भया न कोय।' उनका तो विश्वास था कि शास्त्र-ज्ञाता पके हुए श्रीफल के चतुर्दिक मण्डराने वाले भ्रमर के समान है, जो रस से वंचित रहता है। अतएव उन्होंने घोषणा की कि जो शास्त्रों को जानता है और तप करता है, किन्तु परमार्थ को नहीं जानता, वह मुक्त नहीं हो सकता। जो शास्त्र को पढ़ना हुआ भी विकल्प का त्याग नहीं करता, वह मूर्ख है।' जो स्व-पर का भेद नही जानता, परभाव का त्याग नहीं करता, वह सकल शास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी शिव सूख को प्राप्त नहीं हो सकता ' मुनि रामसिंह कहते हैं कि हे पण्डितों में श्रेष्ठ पण्डित ! तूने कण को छोड़ कर तुष को कूटा है, क्योंकि तु ग्रन्थ और उसके अर्थ से संतुष्ट है, किन्तु परमार्थ को नहीं जानता है। इसलिए तु मूर्ख है। इसीलिए वे कहते हैं कि हे मुख ! अधिक पढ़ने मे क्या? नान तिलिंग, (अग्निकण) को सीख जो प्रज्वलित होने पर पुण्य और पाप को क्षग मात्र में भस्म कर देता है। भैया भगवतीदास ने लिखा है कि चारों वेदों का अध्ययन करने से व्यक्ति भले ही पण्डित हो जाए, व्यावहारिक कर्म का ज्ञान भले ही हो जाय और उसकी निपुणता की प्रसिद्धि भले ही हो जाय, किन्तु इससे वह अत्मज्ञानी नहीं बन जाता। और जब तक कोई प्रात्मतत्व को जान न ले. तब तक शास्त्रज्ञानी की स्थिति उस करछी के समान है जो बटलोही में घुमाई जाकर षट्रस व्यञ्जन के निर्माण में सहायता करती है, किन्तु स्वयं किसी भी रस का स्वाद नहीं ले पाती। सन्त आनन्दघन ने तो देखा था कि 'वेद पुरान, कतेब कुरान और आगम निगम' से कुछ भी लाभ बुज्झह सत्थई तउ चरह पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचह जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ॥२॥ सत्थु पढंतु वि होइ जहु जो ण हणेह वियप्पु । देहि वसंतु वि णिम्मल उ णवि मणइ परमप्पु ||८|| (परमात्म०, द्वि० महा० पृ० २२३-२२४) २. जो णवि जएणइ अप्पु पर णवि परभाउ चएइ। सो जाण उ सत्यई सयल णहु सिव सुक्ग्यु लहेइ ॥६६!! . (योगमार, पृ० ३६२) ३. पंडिय पंडिय पंडिया कणु छडिवि तुस कंडिया। अत्ये गये हो सि परमत्थु ण जाणहि मूढो मि ||५|| ४. णाणति डिक्की सिक्खि वढ कि पढियह बहुएण। जा सुधुक्की णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ ख ऐण ||८७॥ (दोहाराहुड) ५. जो पै चारो वेद पढ़े रचि पचि रीझ रीझ,.. ___पंडित की कला में प्रवीन तु कहायो है।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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