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________________ भारस्वरूप ही है । इनसे शरीर को कप्ट हो सकता है, वह निर्वल और शक्तिहीन हो सकता है, किन्तु निर्वाण प्राप्ति सम्भव नहीं। पाण्डे हेमराज कहते हैं कि शिव सुख के लिए मूर्खजन व्यर्थ ही जप, तप, व्रत आदि विधान करते हैं कर्मों का निर्जरा के लिए एक मात्र 'सोहं शब्द ही प्रमाण है।' किसी प्रकार के वेष धारण से भी मुक्ति सम्भव नहीं। मध्यकाल में विभिन्न प्रकार के योगी और सम्प्रदाय थे। हर सम्प्रदाय की एक विशेष प्रकार की वेष भूषा थी। कोई दिगम्बर था तो कोई श्वेताम्बर, किसी के सिर पर जटाओं का भार दिखाई पड़ता था तो कोई केश-लुञ्चन करता था, कोई पीत वस्त्र धारी था तो किसी ने कषाय ग्रहण कर रक्खा था, कोई अशुभ वेष को महत्व देता था और नख-जटा संवर्धन द्वारा ही मोक्ष की कामना करता था तो कोई अभक्ष्य भक्षण द्वारा मोक्ष प्राप्ति का दावा करता था, कोई भोग में योग देखता था तो अन्य योग में हो भोग। इस प्रकार उस समय विभिन्न थे साधना पन्थ, अनन्त थीं उनकी क्रियाएँ और साधनाएँ। किन्तु जो सच्चे साधक थे, जिन्होंने सत्य को जान लिया था, वे वाह्याडम्बर में विश्वास नहीं रखते थे। उनके लिए यह सब दिखावा मात्र था, अपने को ही धोखा देना था, आत्म प्रवंचना थी। इसीलिए उन्होंने बाह्याचार की निन्दा की थी और तथाकथित योगियों को फटकार बताई थी। वस्तुत: आठवीं शताब्दी से लेकर १५वीं-१६वीं शताब्दी तक का यूग बड़ी ही अव्यवस्था और धार्मिक आन्दोलनों का युग रहा है। इस अवधि में अनेक पन्थों और सम्प्रदायों ने जन्म लिया है और जिस प्रकार आज के युग में राजनैतिक मान्यताओं और सिद्धान्तों द्वारा नेतागण समाज को अपने ढंग से मोड़ना चाहते हैं, अधिकाधिक जनता को अपना अनुयायी बनाना चाहते हैं, उसी प्रकार मध्यकाल में धर्म की प्रोट में योगी और साधु समाज पर अपना प्रभाव जमाना चाहते थे। इनमें से अधिकांश तत्वशून्य थे, उनके पास दिखावा मात्र था। १५वीं-१६वीं शताब्दी में इनकी संख्या काफी बढ़ गई थो। इसीलिए कबीर ने इनकी निन्दी की थी और गोस्वामी तुलसीदास ने भी इनका तीव्र विरोध किया था। किन्तु यह प्रवृत्ति पहले से ही विद्यमान थी और जैन धर्म में भी प्रवेश कर गई थी। जैन मुनि वेष पर जोर देने लगे थे, केश लुञ्चन को ही सब कुछ समझने लगे थे और लिंग ग्रहण, मयूरपिच्छी धारण से ही आत्म-लाभ को कामना करने लगे थे। अतएव इनकी क्रियाओं का भी विरोध हुआ और उनके प्राचारों की अवास्तविकता का अनावरण किया गया। आनन्दतिलक ने कहा कि कुछ लोग बालों को नोचते हैं और कुछ लोग सिर पर जटाओं का भार धारण करते हैं. किन्तु आत्मविन्दु को जानते नहीं। अतएव भव से पार कैसे जा सकते हैं : १. सिव सुख कारनि करत सठ, जप तप वरत विधान । कर्म निर्जरा करन को, सोहं सबद प्रमान |॥५६॥ (उपदेश दोहा शतक)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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