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________________ षष्ठ अध्याय १६७ बनारसीदास चेतन-भूप को काया नगरी का सम्राट बताते हैं। उनका कहना है। कि जिस प्रकार पुष्प एवं फल में सुगन्धि होती है, दूध दही में घी होता है और काठ तथा पाषाण में अग्नि होती है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा का निवास है । परमात्मा ही शरीर में रहने से पचेन्द्रिय रूप गाँव को बसाता है और वही निकल जाने पर यह गांव उजड़ जाता है। 'उब्वस बसिया जो करइ, बसिया करइ जु सुण्ण' वाला वात गुरु गोरखनाथ ने भी कही थी। इसी स्वर में उन्होंने कहा था कि जिसने बस्ती को उजाड़ किया और उजाड़ को बस्ती बनाया है, जो धर्म और अधर्म से परे हैं पाप और पुण्य से अनीय है, मैं उसकी वन्दना करता हूं । वस्तुत: 'काम क्रोधादि विकारों की रंगस्थली यह काया ही सांसारिक दृष्टि से बस्ती है। इसे छोड़कर जब योगी का वित्त उस शून्य निरंजन स्थान पर पहुंचता है, जहाँ समस्त इन्द्रियार्थ तिरोहित हो जाते हैं. तो योगी उजाड़ को बसाता है और बसे हुए को उजाड़ता है। किन्तु शरोर स्थित इस परमात्मदेव को हरिहर आदि भी साधारणतया नहीं जान पाते आत्मदेव के ज्ञान के लिए परमसमाधि रूपी तप की अपेक्षा है परमसमाधि के तप द्वारा परमात्मा का दर्शन और अनुभव किया जा सकता है, अन्य किसी प्रसाधन द्वारा नहीं :-- 3 1 देहि वसंतु वि हरि हरवि जं अज्ज वि ण मुगन्ति । परम समाहि तवेण विए सो परमप्सु भयन्ति ||४२ || ( परमात्मप्रकाश, प्र० महा०, पृ० ४६ ) एक ब्रह्म के अनेक नाम : आत्मा परमात्मा के स्वरूप कथन से स्पष्ट हो जाता है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है— 'जोइ जोइ पिण्डे सोइ ब्रह्मण्डे ।' जव शरीर स्थित आत्मा ही ब्रह्म है तब उसे किसी भी नाम से क्यों न पुकारें, उसके गुण या स्वभाव में कोई अन्तर नहीं माता नाम भेद गुण-भेद नहीं पैदा कर सकता। इसीलिए किसी भी सम्प्रदाय का साधक परमात्मा के नाम विशेष पर हठ नहीं करता । १. काय नगरिया भीतर चेतन भूप । करम र लिपटा यल उयोति स्वरूप ॥ ५॥ ( बनारसी वित्ता, पृ० २२७ ) २. ज्यों सुवास फल फूल में, दही दूध में घीत्र | पावक काठ पाण में, त्यों शरीर में जीव ॥ (बनारसी ०१४३ ) ३. काम क्रोध विकारमारभरि सिंहास्पास्मना, शनि निरंजने च नियतं दिधात्मादन् । इत्थं शुन्यमपनयति यो पूर्ण म धर्माधर्मवितम् तमनिशं वंदे परं योगिनम् ॥ (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मध्यकालीन धर्म साधना ०४६ 'उद्धृत ) से
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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