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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद शुद्ध भाव का अनुभव करता है, वह स्वयं दर्शन ज्ञानमय होकर आत्मा का ध्यान करते करते थोड़े ही काल में कर्म रहित आत्मा या मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतएव मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मों से छुटकारा पाना सभी आचार्यों ने अनिवार्य माना है। योगीन्दु मुनि ने 'योगसार' के अनेक दोहों में आत्मा को 'आत्मध्यान' और 'कर्म निरोध' का उपदेश दिया है। एक स्थान पर जीव को सम्बोधित करते हुए यह कहते हैं कि हे जोव ! यदि तू चतुर्गति के भ्रमण से भयभीत है तो परभाव का त्याग कर और निर्मल आत्मा का ध्यान कर, जिससे तू मोक्ष सुख को प्राप्त कर सके : 'जइ बहिउ च उ-गइ-गमणा तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिव सुक्ख लहेहि ॥५॥ (योगसार, पृ० ३७२ ) आपने आत्म-सुख को ही शिव सुख या मोक्ष सुख माना है। इसी प्रकार योगसार के दोहा नं० १२, १३, १६, २५, २७, ३६, ३८, ५६ और ६२ में मोक्ष-सुखप्राप्ति हेतु कर्म-बन्धन से निष्कृति और परभाव का त्याग आवश्यक बताया गया है। मोक्ष के लिये किसी बाहय उपकरण की भी आवश्यकता नहीं। बस, इच्छारहित होकर तप करे और आत्मा का आत्मा से ध्यान करे तो संसार के आवागमन से मुक्ति मिल जाती है : इच्छा रहियउ तव करहि अप्पा अप्पु मुणेहि । तो लहु पावहि परम गई फुडु संसारु ण एहि ॥१३॥ (योगसार, पृ० ३७३ ) मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी बाह्य प्रयत्न की भी आवश्यकता नहीं, केवल आत्मा को शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, ज्ञानमय जान लेना ही मोक्ष का कारण है। आत्मा के उपर्युक्त स्वभाव की जानकारी कर्मों के विनाश से हो सम्भव है : 'सुद्ध सचेयणु बुधु जिणु केवल णाण सहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जइ चाहहु सिव-लाहु ॥२६॥ (योगसार, पृ० ३७६) १. अप्पाणं अप्पणो रुभिदूण दोसु पुण्णपावजोगेसु । दसणणाणम्हि द्विदो इच्छाविरदो य अण्णहि ॥१८॥ जो सव्वसंगयुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। णवि कम्म णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ॥१८॥ अप्पाणं झायंतो दसणणाणमत्रो अणण्णमश्रो। लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मणिम्मुक्कं ॥१८६॥ ( समयसार, पृ० १२६)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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