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________________ षष्ठ अध्याय १५१ वत्थु पणट्ठइ जेम वुहु देहु ण मणणइ छ । ठे देहे णाणि तह, अप्पु ण मणणइ णठु ॥१८॥ भिणणउ वत्थु जि जेम जिय देहह भणणइ हाणि । देहु वि भिषण उणाणि तंह अप्पहं भण्णइ जाणि ॥१८१ । (परमात्मक श, द्वि. मह, पृ० ३२०) भैया भगवतीदास कहते :लाल वस्त्र पहिरे सों देह न लाल होय, लाल देह भए हंस लाल तो न मानिए। वस्त्र के पुराने भए देह न पुरानी होय, देह के पुराने जोव जीरन न जानिए । वसन के नास भए देह को न नास होय, देह के नास हंस नास ना बखानिए । देह दर्ब पुद्गल की चिदानन्द गर्वमयी, दोऊ भिन्न भिन्न रूप 'भैया' उर आनिए ।।१०।। (नावर न, आश्चर्य चतुदशी, पृ० १६२) बनारसीदास जी दूसरे ढंग से दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हैं। उनका कहना है कि सोने में रक्खी हुई लोहे की तलवार सोने की कही जाती है, परन्तु जब वह लोहे की तलवार सोने के म्यान से अलग की जाती है तब उसे लोग लोहे को कहते हैं अथवा जिस प्रकार घट को ही घी की संज्ञा दे दी जाती है, यद्यपि घी कभी घट नहीं हो सकता, उसी प्रकार शरीर के संयोग से जीव, शरीर नहीं हो जाता: 'खांडो कहिए कनक कौ, कनक म्यान संयोग । न्यारो निरखत म्यान सों, लोह कहें सब लोग ॥७॥ ज्यों घट कहिर घीव को, घट को रूप न घीव । त्यों बरनादिक नाम सों, जड़ता लहै न जीव ॥६॥ ( नाटक समयसार, अजीवद्वार, पृ०७७) शरीर और आत्मा के इस भेद को न जानने के कारण ही जीव शरीर के व्यापारों को अपना व्यापार मान लेता है। परिणामत: वह बन्धन में फँसता चला जाता है। अतएव इस अज्ञानका निवारण प्रत्येक साधक का प्राथमिक कर्तव्य है। इसीलिए योगसार' में कहा गया है कि अशरीर (आत्मा) को ही सुन्दर शरीर शमझो और इस शरीर को जड़ मानो, मिथ्यामोह का त्याग करो और अपने शरीर को भी अपना मत मानो : दास जी रक्खी हुई सोने के १. दुचनी-मम जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरी पराणि । तथा शरीराणि विहाय विन्यानि संयाति नवानि देही ॥२२॥ . (श्रीमद्भागवतगीता, अध्याय २)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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