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________________ पभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद अविषय है, किन्तु मन और वाणी उसी की सत्ता से स्वविषयों की ओर आकर्षित होते हैं । उसके हाथ पैर नहीं हैं, किन्तु वह चलता है और ग्रहण करता है । वह अशरीरी भी है और उसके सहस्र सिर, सहस्र आँखें भी हैं। वह एक होकर भी आधार भेद से अनेक रूप धारण करता है । वह अणु से भी सूक्ष्म और महान् से भी महान् है ।' प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा इसी शरीर में स्थित है, अतएव उसकी खोज के लिए इधर उधर भटकना मूर्खता है । कठोपनिषद् में आत्मा को 'अंगुष्ठमात्र' कहा गया है। श्वेताश्वतरउपनिषद् में लिखा है कि वह हाथ पैर से रहित होकर भी गतिशील है और ग्रहण करने वाला है, नेत्रहीन होकर भी वह देखता है और कर्णरहित होकर भी सुनता है । १४८ जैन दर्शन में आत्मा को 'शरीर प्रमाण' कहा गया है अर्थात् आत्मा जिस शरीर को धारण करता है, उसका आकार भी उसी शरीर के बराबर हो जाता है । इस प्रकार आत्मा का कोई निश्चित आकार नहीं है । वह किसी द्रव पदार्थ के समान है । जिस प्रकार कोई द्रव पदार्थ पात्र का आकार ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा भी धारण किए हुए शरीर का आकार ग्रहण कर लेता है । किन्तु वस्तुतः आत्मा का यह रूप नहीं है और न इस प्रकार वह अपना आकार ही बदलता रहता है। जैन दर्शन आत्मतत्व की दो रूपों में व्याख्या करता है-व्यवहारनय और निश्चययन । व्यवहारनय से आत्मा का उपर्युक्त स्वरूप रहता है । वह कर्ता, भोक्ता और शरीर परिणामी है । किन्तु निश्चयनय से आत्मा न शरीर धारण करता है, न कर्म करता है और न आकार बदलता है । निश्चयनय से वह शुद्ध, बुद्ध, ज्ञानी है, सर्व मल रहित है, जन्म ज़रा मरण से परे है । 'परमात्मप्रकाश' में श्री योगिन्दुमुनि कहते हैं कि आत्मा न गौरवर्ण का है, न कृष्ण वर्ण का और न रक्त वर्ण का, वह न सूक्ष्म है और न स्थूल । आत्मा न ब्राह्मण है, न वैश्य; न क्षत्रिय है, न शूद्र; न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक; न वह बौद्ध आचार्य है, न दिगम्बर मुनि न परमहंस है, न जटाधारी अथवा मुण्डित संन्यासी; न वह किसी का गुरू है, न शिष्य; न वह पण्डित है, न मूर्ख; न वह ईश्वर है न अनीश्वर; वह तरुण, वृद्ध अथवा बाल भी नहीं है; न वह देव है, न पशु, पक्षी या इतर प्राणी । वह शुभ-अशुभ भावों से परे हैं, अतीत, आगत और अनागत की सीमा के ऊपर है । आत्मा शील है, तप है और दर्शन, ज्ञान, चरित्र है । योगीन्दु मुनि के शब्दों का समर्थन करते हुए 1 १. गुलाबराय - रहस्यवाद और हिन्दी कविता, पृ० २० । २. इहैवान्तः शरीरे सोम्य स पुरुषो || प्रश्न ० ६-२ ॥ ३. अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्यश्रात्मनि तिष्ठति । कठ० २|१|१२ ॥ ४. श्रपाणिपादो जवनो ग्रहीता, ५. पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: 1 अप्पा गोरउ किराडु णवि, अप्पा सुहुमुवि थूणु ण वि ( श्वेता० ३।३।१६ ) अप्पा रत्तु ण होइ । याणिउ जाणे जोइ ॥ ८६ ॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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