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________________ १४४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्मद्रव्य स्वत: किसी वस्तु को गतिशील नहीं बनाता है, अपितु जो स्वयं गतिमान है, उनकी सहायता भर कर देता है । जिस प्रकार मछली के चलने में जल सहायक होता है। वह किसी द्रव्य की गति में निमित्त कारण ही होता है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी निमित्त कारण ही है अर्थात् स्वत: ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को पृथ्वी की तरह ठहरने में सहायक होता है। इन द्रव्यों की उपादेयता जल या छाया के समान ही है। जिस प्रकार मछली की गति के लिये जल की अपेक्षा है अथवा ग्रीष्म से तप्त यात्री के लिये छाया की आवश्यकता है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति और स्थिति के लिये क्रमश: धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य की सहायता अपेक्षित है। कुछ विद्वानों ने इन द्रव्यों की तुलना आधुनिक विज्ञान के विभिन्न पदार्थों से की है और धर्म द्रव्य को ईथर नामक तत्व और अधर्म द्रव्य को सर आइजक न्यूटन के आकर्षण सिद्धान्त के समान बताया है। आकाश द्रव्य सकल द्रव्यों को अवकाश देने वाले द्रव्य का नाम अाकाश द्रव्य है। यह अमूर्तीक और सर्वव्यापी है। इसके भी दो भेद कहे गये हैं -लोकाकाश और अलोकाकाश । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों की गति और स्थिति का क्षेत्र लोकाकाश है। अलोकाकाश शून्य है, दूसरे द्रव्य का गमन वहाँ नहीं हो सकता । आकाश द्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है। काल द्रव्य सभी द्रव्यों के उत्पादादि रूप परिणमन में जो सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं। यह भी वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि से रहित होता है और अमूर्त है। किन्तु धर्म या अधर्म द्रव्य के समान यह एक नहीं, अपितु अनेक हैं । भूत, भविष्य, वर्तमान आदि काल की ही पर्यायें हैं। काल द्रव्य किसी पदार्थ के परिणमन में निमित्त कारण ही होता है अर्थात् इसकी सहायता प्राप्त करके द्रव्य पर्याय भेद को प्राप्त होते रहते हैं, जैसे कुलाल चक्र से मृत्तिकापिंड। १. जैसे सलिल समूह में करै मीन गति कर्म ।। वैसे पुद्गल जीव को, चलन सहाई धर्म ॥२२|| ज्यों पंथी ग्रीषम समै, बैठे छाया मांहि । त्यों अधर्म की भूमि में, जड़ चेतन ठहगंह ॥२३॥ (बनारसीदास-नाटकसमयसार की उत्थानिका) २. देखिये -श्री घासीर म कृत कासमोलोजी अोल्ड ऐण्ड न्यू | ३. दव्वहं सयलई बरि ठियई णियमें जामु वसंति ! तं णडु २० वियाणि दुई जिगणवर एउ भणति ॥२०॥ RE ', दि० महा०, १४६)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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