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________________ १४२ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद कहा भी है कि जीव की दो दशाएं हैं-सारी और सिद्ध।' जीव जब तक संसारी रहता है, शरीर में विद्यमान रहता है, तब तक पद्मरागमणि के समान शरीर को प्रकाशित करता रहता है और कर्म मल से मुक्त होने पर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अनन्त काल तक असीम आनन्द का अनुभव करता रहता है। पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गंध, वर्ण आदि पुद्गल के लक्षण हैं। हम जो कुछ देखते हैं, संघते हैं, वह सब पुद्गल है। अम्ल तिक्त, कपाय, कटु, क्षार और मधुर आदि षट रस पुद्गल के हैं। तप्त, शीत, चिक्कण, रूखा, नर्म, कठोर, हल्का, भारी आदि स्पर्श पुद्गल के हैं। सुगंध और दुर्गन्ध पुद्गल के ही रूप हैं। शब्द, गंध, सूक्ष्म, सरल, लम्ब, वक्र, लघु, स्थूल, संयोग, वियोग, प्रकाश और अंधकार आदि के मूल पुद्गल ही हैं। छाया, आकृति, तेज, द्युति आदि पुद्गल की पर्याय हैं । एक प्रकार से समस्त दृश्यमान जगत इस 'पुद्गल' का ही विस्तार है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि इन्द्रियों के भोगने योग्य पदार्थ, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच प्रकार के शरीर और मन तथा पाठ कर्म आदि जो कुछ मूर्त पदार्थ है, उन सभी को पुदगल समझो। स्वामी कार्तिकेय ने कहा है कि जो रूप, रस, गंध, स्पर्श परिणाम आदि से इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य है, वे सब पुद्गल द्रव्य हैं। वे संख्या में जीव से अनन्त गुने हैं। पुद्गल द्रव्य में अपूर्व शक्ति है। ये जीव के केवल ज्ञान स्वभाव को भी नष्ट कर देते हैं। पौद्गलिक पदार्थों के गर्भ में पड़ कर जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है और भव भ्रम में चक्कर काटता रहता है। यहाँ तक कि पुद्गल और अपने में जीव कोई अन्तर नहीं जान पाता और पुद्गल की दशाओं को अपनी दशाएँ मान लेता है। इसी कारण कर्म वृद्धि होती रहती है। १. जीव द्रव्य की द्वै दशा, संसारी अरु सिद्ध । पंच विकल्प अजीव के, अन्वय अनादि असिद्ध ॥ ४ ॥ (बनार. दस-बनारसविलम, कर्मछत्तीसी, पृ० १३६) २. उदनोज दिएहिं, य इंदिय काया मणो म कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं, तं सव्वं पोग्गलं जाणे ॥२॥ (पंचास्तिकाय ) ३. जे इंदिएहि गिज्झ स्वरसगंवझास परिणाम । नं चिय पुग्गलदव्व अणंतगुणं जवगमांदो ॥२०७॥ का वि अयुवा दासदि पुग्गल दव्वस्त एरिसी सत्ती । केवलणाण सहाओ विणासिदो जाइ जावस्स ॥२११॥ (स्वामी कार्तिकेय-कार्तिकेयानुप्रेक्षा) गर्भित पुद्गल पिंड में, अलख अमूरति देव । फिरै सहज भव चक्र में, यह अनादि की टेव ॥१६॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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