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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद कल्पना नहीं की जा सकती।' इस प्रकार द्रव्य नित्य और अपरिवर्तनशील है, उसकी अनेक पर्याय हुआ करती हैं, जैसे मिट्टी द्रव्य का एक घट बनता है, उस समय मिट्टी का पिण्ड रूप पर्याय विनष्ट हो जाता है और घट का आकार धारण कर लेता है। किन्तु मिट्टी द्रव्य में कोई अन्तर नहीं आता। द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट, किन्तु उसकी पर्याय ही उत्पन्न, परिवर्तित और विनष्ट होती रहती हैं। आचार्य समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' में उदाहरण देते हुए इस तथ्य को प्रमाणित किया है। उन्होंने लिखा है कि एक राजा के एक पुत्र है और एक पुत्रो । राजा के पास एक सोने का घड़ा है। पुत्री उस घट को चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घट को तोड़कर उसका मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र का हट पूरा करने के लिए घट को तोड़कर उसका मुकुट बनवा देता है। घट नाश से पुत्री दुःखी होती है, मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है और चूकि राजा तो सुवर्ण का इच्छुक है, जो घट टूटकर मुकुट वन जाने पर भी कायम रहता है । अतः उसे न शोक होता है और न हर्ष । अत: वस्तु त्रयात्मक है। इस प्रकार जैन दर्शन भिन्नता में अभिन्नता और अनेकता में एकता को स्वीकार करता है। इसे हम भेदाभेदवाद का सिद्धान्त कह सकते हैं। डा० राधाकृष्णन ने भी लिखा है कि उनके (जैन दर्शन) लिए भेद में अभेद ही वास्तविकता या सत्यता है । वे भेदाभेदवाद सिद्धान्त के पोषक हैं। द्रव्य-भेद : द्रव्य के दो रूप हैं-जीव और अजीव। जिनमें चेतनता पाई जाय, वह जीव द्रव्य और जो अचेतन हैं, वे अजीव द्रव्य कहलाते हैं । आत्मा चेतन्य है, शेष अचेतन । अचेतन या अजीव द्रव्य पाँच हैं : १. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश, ५. काल । ये छहों द्रव्य अनादि हैं। एक दूसरे का कोई कर्ता नहीं है। अपने गुण पर्यायों के अनुसार छहों द्रव्य अनादि काल से विद्यमान हैं। पूरे ब्रह्मांड का निर्माण इन्हीं छः द्रव्यों से हुआ है। १. पजविजुदं दवं, दव विजुता य पजय णत्थि । दोगह अणणगभूदं भावं समणा परुविति । १२।। दव्वेण विणा ण गुणगुणहि दव्वं विणा ण संभव दि । अवदिरित्तो भावो, दब्वगुणाणं हदि तमा ।। १३ ।। (पंचास्तिकाय) २. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री - जैनधर्म; पृ० ७५-७६ । “Reality to them is a unity in difference and nothing beyond. They adopt a theory of 'Bhedabheda' or difference in unity." -Indian Philosophy. ( Part II ), Page 313. ४. छहों सु द्रव्य अनादि के. जगत माहि जयवंत । को किस ही कर्ता नहीं, यों भाखे भगवंत ॥२॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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