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________________ तृतीय अध्याय १२६ तीनों लोकों का सार है। अतएव तु इस अजपाजप' में अपने को लगा दे । परमात्मा घट घट व्यापी है, किन्तु वह घट धन्य है. जिसमें वह प्रगट हो जाय । द्यानतराय ब्रज भाषा के पंडित थे किन्तु आपकी रचनाओं में हिन्दी की अन्य बोलियों के शवों के अतिरिक्त अरबी-फारसी के भी पाए जाते हैं। कुछ पदों पर तो पूर्ण रूप से विदेशी पदावली का प्र 'जिंदगी सहल पे नाहक धरम जाहिर जहानायका तमासा है । कबीले के खातिर तू काम बन्द करता है। अपना मुलक छोड़ि हाथ लिया कांसा है ॥ कौड़ी - कौड़ी जोर-जोर, लाख कोरि जोरता है, काल की कुमक आए चलना न मासा है । साइत न फरामोश जिए गुसया को यही तो सुखन खूब ये ही काम खासा है |2|| धर्म दस प्र०१६) १७ मोह मोह होत नित, सांस उसास संभार ताकी ग्रस्थ विचारिए, तीन लोक में सर । जैसा तैसी श्राप, थाप निही तजि मोह | अजपा जाप संभार, सारसुख सोहं सोहं ॥७॥ ( धर्म विलास, पृ० ६५ ) ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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