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________________ तृतीय अध्याय १२७ राय ने उन रचनाओं को एकत्र कर और यह विचार कर कि भविष्य में यह नष्ट न हो जाय, एक गुटके में संग्रहीत कर दिया : द्यानत का सुत लाल जी चिठे ल्याओ पास। सो ले काम को दि: आलम गंज मुबास ।।१।। तासे पुन से सकल ही चिट्टे लिए मगाय । मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय ||१४|| तब मन माहि विचार पोथी कोन्ही एकटी। जोरि पढ़ें नर नारि धर्म ध्यान में थिर रहैं ॥१५॥ संवत सतरह से चौरासी माघ मुदी चतुर्दशी भासी। तब यह लिखत समापत कीन्हीं मैनपुरी के माह नवीनी ।।१।। प्रागमविलास की एक प्रति श्री अगरचन्द नाहटा के पास सुरक्षित है। इसमें ४६ रचनाएँ संग्रहीत हैं। प्रारम्भ में १५: सबैया छंदों में मैद्धान्तिक विषयों की चर्चा है। नाहटा जी का अनुमान है कि इन विषयों की प्रधानता होने के कारण ही इसका नाम 'आगम बिलान' रकबा गया। भेद विज्ञान और आत्माननव- यह भी आपकी एक अन्य रचना बताई जाती है। इसमें आपने जीव द्रव्य और पुद्गलादि पर-द्रव्यों का विवेचन किया है और दोनों का अन्तर स्पष्ट किया है। आपका विश्वास है कि आत्मतत्व रूपी चिन्तामणि के प्राप्त होने से ही सभी इच्छाएं पूर्ण हो सकती हैं, अन्यथा नहीं। वह तन्न ज्योति मनरल है, जिसके पावन प्रकाश में वे सब पद, अपद प्रतीत होने लगते हैं, जिनकी चाह में इस मुद्रा प्राणी ने अपना सर्वस्व खोया है। प्रात्म तत्व की उपलब्धि होने पर विपय रस फाके हो जाते हैं। किन्तु यह प्रात्मानुभूति तीर्थादिकों के भ्रमण से नहीं होती, क्योंकि वह 'परमतत्व' तो घट में ही विराजमान है, जिस तरह तिल में तेल । कवि के शब्दों में 'मैं एक शुद्ध ज्ञानी निर्मल सुभाव राता। दृग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी। तिहु काल परसो न्यारा, निरद्वन्द निर्विकारा, आनन्दकन्द चन्दा, द्यानत जगत सदंदा, अव चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।।' १. अनेकान्त-वर्ष ११, किरण ४-५ (जुलाई १९५२ ) पृ० १६८-६६ से उद्धृत। २. देवि ए-वर वाणी, वर्ष २, अंक १९-२० ( १८ जनवरी, १९४६) पृ० २५५ पर भी नाइटा जी का लेन्द कवि धानतराय वीर उनके प्रथ। ३. अनेकन-६ ११, किरण ४-५ (जुन्लाई १६५२ ) पृ० १६६ से उद्धृत ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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