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________________ तृतीय अध्याय ११६ गतियों के लिए आए हैं। मधु की वद विषय सुन्व है. जिसमें जीव आसत्रत रहता है और विद्याधर रूपी सद्गुरु के वचन का अनुसरण नहीं करता है। परिणामतः इस विश्व वन के नंकटां का अन्त नहीं होना है। इस प्रकार कवि ने बड़े ही सुन्दर ढंग से विश्व की स्थिति को, जीव को दगा की और उसकी मुक्ति के उपाय को, एक रूपक के माध्यम में व्यक्त किया है। मंमार के सच्चे सुख-दुख का वर्णन करके, कवि जीव को सद्गु के वचनामृत हागमचेत हो जाने का उपदेश देता है : 'एतो दुख संसार में, एतो मुख सब जान । इमि लखि 'भैया' चेनिए, सुगुरू वचन उर आन ।।५८।। आपने इसी प्रकार अन्यत्र 'यात्म-शुक-रुपक' के माध्यम से प्रात्मा के स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है। रूपक इस प्रकार है आत्मा म्पी शक को सद्गुरू उपदेश देता है कि वह कर्म रूपी वन में कदापि प्रदान करें. क्योंकि वहाँ लोभ रूपी नलिनी ने मोह का घोन्या देने के लिए विपन सूख रूप अन्न को संजो रक्खा है। यदि अजानवय वह कर्न-वन में पदंच भी जाय तो उसे दव भाव से ग्रहण न करे, यदि दृढ़ भाव में ग्रहण भी करे तो उलट न जाय, यदि कदाचित उलट भी जाय तो तत्काल उड़कर भाग जाय । गुरू के इस उपदेश को नित्य प्रति सुनने वाला आत्म-गुक एक दिन अटवी को उड़कर जाता ही है और वहाँ विषय सुख देखकर उनकी ओर आकृष्ट भी हो जाता है। फलत: ज्यों ही वह लोभ नलिन पर बैठना है, विपय स्वाद रस में लटक जाता है। विपयों में फंस जाने पर कोई उमा उद्धारकर्ता नहीं दिखाई पड़ता । अन्ततः उसे गुरु उपदेश का स्मरण होता है और प्रभु स्मरण ने वह विपय जाल काटने में पून: समर्थ होता है । निश्चय ही : - 'यह संसार कम बन रूप। तामहि चेतन सुआ अनृप । पढ़त रहै गुरू वचन विशाल । तोहु न अपनी करै संभाल ॥२॥ लोम नलिन पै बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय । पकरहि दर्जन दुर्गति पर। तामें दुःख बहुत जिय भरै ॥२३॥ (ब्रह्म०, ३० २७०) कवि ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पुरुप विषय सूखों के भ्रम में आकर आत्म-स्वहन को भूल जाता है और सांसारिक पीड़ाओं को भुगतने के लिए विवश हो जाता है। अापने अन्य रहस्यवादी सन्तों के समान गुरू के महत्व को अविकल रूप से स्वीकार किया है। आपका विश्वास है कि सदगुरु के मार्गदर्शन के बिना जोव का कल्याण नहीं हो सकता, किन्तु सदगुरू भी बर्ड भाग्य मे मिलता है : 'सुअटा सोचै हिए. मझार। ये गुरू. साँचे तारनहार ।।२।। मैं शठ फिर्यो करम वन माँहि । ऐसे गुरू कहु पाए नाहिं । या । साँचे गुरू को दर्शन लयो॥२६॥ (वन०, पृ० २७०
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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