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________________ तृतीय अध्याय का सम्पादन किया है। इसमें १०६ पदों के अतिरिक्त परिशिष्ट में आनन्दघन (जैन कवि ) के नाम से पांच पद और दिए गए हैं। रामचन्द्र काव्य माला से जो 'आनन्दघन बहत्तरी' छपी है, उसमें १०७ पद हैं। प्राचार्य बुद्धिसागर सूरि ने १०९ पदों की विस्तृत व्याख्या की है। यह ग्रन्थ अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल 'पादरा' से प्रकाशित है । भीमसीमणिक द्वारा सम्पादित पुस्तक में १०७ पद हैं । नाहटा जी के शास्त्र भाण्डार में एक हस्तलिखित प्रति गुटका नं० २३ में उपलब्ध है। इसके केवल ६५ पद ही हैं। यह प्रति पूर्ण नहीं प्रतीत होती । इससे आनन्दघन रचित पदों की निश्चित संख्या का पता लगाना कठिन हो गया है । प्रश्न यह है कि क्या आनन्दघन के केवल ७२ पदों की रचना की थी, शेष पद दूसरे कवियों के मिल गए हैं अथवा उनके द्वारा रचित पदों की संख्या ७२ से अधिक है ? 'बहोनरी' के कुछ पद तो अवस्य ही दूसरे कवियों के हैं । ( पद नं० ४२, १०६) द्यानतराय, ( पद नं० ९३, ९९) कबीर (पद नं० १४४ ) बनारसीदास और ( पद नं० ९६ ) भूघरदात के हैं। केवल 'आनन्दघन' के स्थान पर द्यानत, कबीर, वनारसीदास ग्रथवा सुरदान कर देने से और एक दो शब्दों को परिवर्तित कर देने से वे पद इन कवियों के हो जाते हैं । किन्तु ऐसे पदों की संख्या अधिक नहीं है । यदि ऐसे ११ पदों को निकाल भी दिया जाय तो १०० पद शेष रह जाते हैं । अतएव 'आनन्दघन' ने केवल ३२ पदों की ही रचना की थी, इसे बलपूर्वक नहीं कहा जा सकता । सम्भवतः 'बहोत्तरी' नामकरण भी कवि का किया हुआ नहीं है । १०६ मूल्यांकन : आनन्दघन, निर्गुणियां सन्तों, विशेष रूप से 'कबीर की श्रेणी में आते हैं । 'चौबीसी' की जैन सीमाएँ, 'बहोत्तरी' में भग्न हो गई है। शैला भी सन्तों की आ गई है। 'साखी' की रचना हुई है । बिरहिणी नायिका के समान कवि की आत्मा प्रियतम से मिलने के लिए व्यग्र दिखाई पड़ती है। बनारसीदास के बाद प्रानन्दघन ही ऐसे श्रेष्ठ जैन कवि हैं, जिन्होंने बड़े ही विस्तार से और स्पष्ट शब्दावली में 'आत्मा' की तड़पन को दिखाया है, परमात्मा का प्रियतम या पति के रूप में उल्लेख किया है और अवधू को सम्बोधित किया है । कवि कहता है कि 'मैं निशिदिन अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा करता रहता हूँ, अपलक दृष्टि से मार्ग देखता रहता हूं, किन्तु पता नहीं वह कब आएगा ? मेरे जैसे उसके लिए अनेक हैं, किन्तु उसके समान मेरे लिए दूसरा कोई नहीं । प्रिय के वियोग में सुध-बुध ही भूल गई है, कहीं आंखे भी नहीं लगती । शरीर, गृह, परिवार १. निसदिन जाऊँ ( तारी ) बाटड़ी घरे आवो न ढोला | मुज सरिखी तुज लाख है, मेरे तु ही ममोला । ( पद १६, पृ० ३६३ ) २. पिया बिन सुधि बुधि भूली । आंख लगाईं दुख महल के झरखे झूली हो । ( १द ४१, पृ० ३७५ )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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