SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय ग्रन्थ : २०७ आनन्दघन के दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं - (१) आनन्दवन चौवीसी अथवा स्तवावली और (२) आनस्यघन बहोनरी । मिश्रवन्धुओं ने भूल से इन दोनों रचनाओं को एक ही मान लिया है। दोनों रचनाएँ गुजरान प्रदेश में काफी जनप्रिय हैं। गुजराती भाषा टीका के साथ इनके कई संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। आनन्दघन चौबीसी : आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने चार प्रकाशित प्रतियों के आधार पर इसका संपादन किया है। श्री महावीर जैन विद्यालय के रजत महोत्सव संग्रह ' में प्रकाशित 'अध्यात्मी ग्रानन्दघन ने श्री यशोविजय' शीर्षक लेख में बतारा गया है कि उनकी 'चौवीसी' की कई पंक्तियों सर्व श्री समयमुन्दर ( नं० १६७२ ) जिनराज सूरि (सं० १९७८) सकलचन्द्र (सं० १६४० ) और प्रीतिविनल (सं० १६७१) के जिन स्तवनादि ग्रंथों में आए चरणों से मिलती हैं। इससे चौबीसी का समय (सं० १६७८ ) के अनन्तर ही ठहरता है। सेन जी ने आपका जन्म सं० १६७२ के आस पास अनुमानित किया है। इससे 'चौबीसी' का रचनाकाल और आगे बढ़ जाता है। इसमें चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है । कहा जाता है कि अंतिम दो पद ग्रानन्दघन कृत नहीं हैं । परवर्ती विद्वानों द्वारा उनको जोड़ा गया है । नं० १७६८ में ज्ञानविमल मुरि ने इन स्तवनों की सर्वप्रथम व्याख्या की थी। उन्हें २२ पद ही प्राप्त थे । प्रतएव दो पद उन्होंने जोड़ दिया । इसके पश्चात् श्री ज्ञानसार ने 'चौवीसों' की विशद व्याख्या की । कहा जाता है कि श्रीमद् ज्ञानसार जी ने ३७ वर्षों के श्रम के पश्चात् स्तवनों पर 'बालावबोध' नामक टीका की रचना की थी, फिर भी उनको ये पद अतीव गम्भीर प्रतीत हु । आपने स्तवनों की गहनता को इन शब्दों में स्वीकार किया है : आशय आनन्दघन तो अति गम्भीर उदार । बालक बांह पसारि जिम कहे उदधि विस्तार ||१|| कवि ने इस चौवीसी में तीर्थङ्करों की स्तुति मात्र ही नहीं की है, अपितु इसके माध्यम से उसने स्वानुभूति को अभिव्यक्त किया है, अलख निरंजन का गीत गाया है और आत्मा की तड़पन को उच्छ्वसित किया है । कभी तो वह सांसारिक पुरुषों के अज्ञान के प्रति दुःख प्रकट करता हुआ प्रतीत होता है और १. घन आनन्द और श्रानन्दघन, पृ० ३३३ से ३५५ । २. वीर वाणी (पाक्षिक) वर्ष २, अंक ६ में श्री श्रगरचन्द नाहटा के लेख 'महान् संत श्रानन्दघन और उनकी रचनाओं पर विचार पृ. ७८ से उद्धृत |
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy