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________________ तृतीय अध्याय १०५ इस प्रशस्ति के अन्तिम पद में यगोविजय ने स्वीकार किया है कि आनन्दघन की सत्संगति से ही उनमें विवेक जाग्रत हआ और पारस के स्पर्श से जैसे लोहा कंचन बन जाता है, उसी प्रकार यशोविजय भी 'प्रानन्द सम' हो गये : 'आनन्दघन' के संग मुजस हीं मिले जब, तव आनन्द सम भयो सुजस । पारस संग लोहा जो परसत, कंचन होत है ताके कस। खीर नीर जो मिल रहे आनन्द, जस सुमति सखि के संग तस । भयो है एक रस, भव खपाइ मुजस विलास, भये सिध सरूप लिये धसमस ॥८॥ यशोविजय जी की इस प्रशस्ति से स्पष्ट है कि वे अानन्दघन की साधना से काफी प्रभावित थे। वहत सम्भव है आनन्दघन यशोविजय जी से आय में भी कुछ बड़े हों। आचार्य श्री भितिमोहन मेन का भी अनुमान है कि उनका जन्म सन् १६१५ ई० (सं० १६७२) के आस-पास हुया होगा। सेन जी को भक्तों से यह भी विदित हुआ है कि आनन्दघन की भेंट और बातचीत दाद के शिप्य मस्कीन जी से हुई थी। मस्कीनदास का रचनाकाल सं० १६५० माना जाता है। 'वाणी' इनकी प्रमुख रचना है। यदि आनन्दघन को मस्कीन जी का समकालीन मान लिया जाय तो उनका समय और पहले आ जाता है। लेकिन दोनों के साक्षात्कार का कोई प्रमाण नहीं मिलता। स्वयं सेन जी ने आनन्दघन का जन्म सं० १६७२ के लगभग माना है । अतएव दोनों का मिलन सम्भव नहीं। आनन्दघन का जन्म स्थान कहाँ था? इसका भी कोई विवरण प्राप्त नहीं है। कुछ विद्वानों ने बुन्देलखण्ड को उनका जन्मस्थान माना है। इस मान्यता का भी कोई पूष्ट आधार नहीं है। लेकिन उनके पर्यटन और भ्रमण का पता चलता है। राजस्थान, पंजाब, गुजरात आदि के अधिकांश भागों का उन्होंने भ्रमण किया था। उनके अन्तिम जीवन का अधिकांश भाग राजस्थान में ही व्यतीत हुआ था। मेड़ता नामक स्थान पर यशोविजय जी भी उनके साथ कुछ समय तक रहे थे। उनकी रचनाओं पर राजस्थानी का काफी प्रभाव है। सेन जी का अनुमान है कि शायद राजपुताना के हो किसी भाग में उनका जन्म हुआ हो। सम्भवतः भाषा के आधार पर श्री परशुराम चतुर्वेदी ने भी अनुमान लगाया है कि "वे कहीं गुजरात प्रान्त व राजस्थान की ओर के निवासी थे और उनके अन्तिम दिन जोधपुर राज्य के अन्तर्गत बने हुए मेवाड़ नगर में व्यतीत हए थे, जो मीराबाई की जन्मभूमि है।” उनका अन्तिम दिनों में मेड़ता निवास तो प्रमाणित होता है, किन्तु केवल भाषा के आधार पर किसी भी सन्त १. आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र-धनानन्द और प्रानन्दघन, पृ० ३३२ । २. मोतीलाल नेनारिया-राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० २१४ । ३. परशुराम चतुर्वेदी-सन्त काव्य, पृ० ३२८ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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