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________________ २०० अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद है। संसाररूपी मन्दिर में एक खटोला है, जिसमें कोपादि चार पग हैं, काम पोर कपट का मिरवा तथा चिन्ता और रति की पाटी लगी है। वह अविरति के बानों से बुना हुआ है और उसमें आशा की अडवाइ नि लगाई गई है। मन रूपी बढ़ई ने विविध कर्मों की सहायता से इसका निर्माण किया है। जीव रूपी पथिक इस खटोलना पर अनादि काल से लेटा हुआ मोह की गहरी निद्रा में सो रहा है, पांच चोरों ने उसकी सम्पत्ति को भी चुरा लिया है। मोह-निद्रा के न टूटने के कारण ही जीव को निर्वाण नहीं प्राप्त हो रहा है। चतुर जन ही गुरु कृपा से जाग पाते हैं। जगने पर काल रात्रि का अन्त हो जाता है, सम्यकत्र का विहान होता है, विवेकरूपी सूर्य का उदय होता है, भ्रान्तिरूपी तिमिर का विनाश हो जाता है। साधक तीनों गुप्त रत्नों (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र) को प्राप्त कर लेता है, खटोलना का परित्याग कर देता है और शिव देश को गमन करता है। शिव देश कैसा है? वह सिद्धों का सदैव से निवास स्थान रहा है। वहाँ पहंचने पर साधक सहज-समाधि द्वारा परम सुखामृत का पान व रता है, जरा मरण के भय से मुक्त हो जाता है। अन्त में कवि ऐसे ही सिद्धों की विनय करता है और स्वयं 'जगने' की कामना करता है': 'रूपचन्द जन वीनवे, हूजौ तुव गुण लाहु । ते जागा जे जागसी, तेहउ बंदउ साहु ।।१३।। इसके अतिरिक्त काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट (१९३८-४०) से रूपचन्द की चार रचनाओं-विनती, पंचमंगल तपकल्याणक और ज्ञानकल्याणक का पता चला है। इनमें से पंचमंगल का उल्लेख पहले ही हो चुका है। शेष तीन रचनाओं में से 'विनती' में जिन भगवान की स्तुति की गई है। इसमें केवल १० पद है। उसकी हस्तलिखित प्रति इटावा के लाला शंकरलाल के पास सुरक्षित दे तपकल्याणक' में भी दस पद हैं। इसमें जिनदेव के तप करने का वर्णन है। इसकी एक प्रति इटावा के पं० भागवत प्रसाद के पास सुरक्षित है। ज्ञानकल्याणक में जिनराज के ज्ञानोपदेश का वर्णन है। इसमें वारह पद हैं। इसकी एक प्रति इटावा निवासी पं० भागवत प्रसाद के पास सुरक्षित है । इन रचानाओं से स्पष्ट है कि रूपचन्द जी एक प्रतिभा सम्पन्न, अध्यात्म प्रेमो कवि थे। वे मुनि योगीन्दु, मुनि रामसिंह और बनारसीदास के समान ही परमान्म लाभ के लिए साधना पक्ष पर जोर देते थे। वे चित शद्धि के समर्थक थे और बाह्याइम्बर के विरोधी थे। १. रचना परिशिष्ट में संलग्न है। २. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का सत्रहवाँ वार्षिक विवरण, पृ० ३२५ से ३३१ तक।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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